ज्योतिष पर ओशो के विचार
ज्योतिष के नाम पर सौ
में से निन्यानबे धोखाधड़ी है। और वह जो सौवां आदमी है, निन्यानबे को छोड़ कर उसे समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह
कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही। क्योंकि वह जानता है कि
ज्योतिष बहुत बड़ी घटना है। इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझक कर ही वहां पैर रख
सकता है। जब मैं ज्योतिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो मेरा प्रयोजन है कि मैं
उस पूरे-पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूं उस महल के। मैं इस
बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य है। और वह अनिवार्य आपके
जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त और लयबद्ध है, अलग-अलग
नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं हैं।
अस्तित्व में सब
क्रिसक्रास प्वाइंट्स हैं, जहां जगत की अनंत
शक्तियां आकर एक बिंदु को काटती हैं; वहां व्यक्ति निर्मित हो
जाता है, इंडिविजुअल बन जाता है।
तो वह जो सारभूत ज्योतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं हैं। एक, उस एक ब्रह्म के साथ हैं, उस एक ब्रह्मांड के साथ
हैं। और प्रत्येक घटना भागीदार है।
जब एक बच्चा पैदा हो
रहा है तो पृथ्वी के चारों तरफ क्षितिज को घेर कर खड़े हुए जो भी नक्षत्र हैं—ग्रह हैं, उपग्रह हैं, दूर आकाश में महातारे हैं—वे सब
के सब उस एक्सपोजर के क्षण में बच्चे के चित्त पर गहराइयों तक प्रवेश कर जाते हैं।
फिर उसकी कमजोरियां, उसकी ताकतें, उसका सामर्थ्य, सब सदा के लिए प्रभावित
हो जाता है।
जन्म के समय, बच्चे के मन की दशा फोटो प्लेट जैसी बहुत ही संवेदनशील होती
हैं। जब बच्चा गर्भ धारण करता है, यह पहला एक्सपोजर है। जब
बच्चा पैदा होता है वह दूसरा एक्सपोजर है। ये दो एक्सपोजर बच्चे के संवेदनशील मन
पर फिल्म की तरह छप जाते हैं। उस समय में जैसी दुनिया है वैसी की वैसी बच्चे पर छप
जाती है। यह बच्चे के सारे जीवन की सहानुभूति और विद्वेष को तय करता है.
इस संबंध में यह भी
आपको कह दूं कि ज्योतिष के तीन हिस्से हैं एक—जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे
जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है—नॉन एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को
उत्सुक होते हैं। और उन दोनों के बीच में एक परिधि है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से कर लें।
एसेंशियल—जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य, जिसमें कोई अंतर नहीं हो
सकता। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। धर्मों ने
इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की, उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा हिस्सा है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य। अगर
जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो
नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा, तो जो होना है वही होगा।
ज्ञान होगा, तो आल्टरनेटिव्स हैं, विकल्प हैं, बदलाहट हो सकती है। और
तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है—नॉन एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है।
मैं जिस ज्योतिष की बात
कर रहा हूं, और आप जिसे ज्योतिष
समझते रहे हैं, उससे गहरी है, उससे भिन्न है, उससे आयाम और है। मैं इस
बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य है। और वह अनिवार्य आपके
जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त और लयबद्ध है, अलग-अलग
नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं हैं .
तीन बातें हुईं। ऐसा
क्षेत्र है जहां सब सुनिश्चित है। उसे जानना सारभूत ज्योतिष को जानना है। ऐसा
क्षेत्र है जहां सब अनिश्चित है। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा
क्षेत्र है जो दोनों के बीच में है। उसे जान कर आदमी, जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है, जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर और परिधि और
केंद्र के मध्य में आदमी इस भांति जीये कि केंद्र पर पहुंच पाए तो उसकी जीवन की
यात्रा धार्मिक हो जाती है.
जब तुम ज्योतिषी के पास
जाते हो, उससे आवश्यक प्रश्न पूछो, जैसे कि ‘मैं तृप्त मरूंगा या
अप्रसन्न मरुंगा?’ ये पूछने जैसा प्रश्न है; यह एसेंसियल ज्योतिष से जुड़ा है। तुम सामान्यतया ज्योतिषी से
पूछते हो कि कितना लंबा तुम जिओगे--जैसे कि जीना पर्याप्त है। तुम क्यों जिओगे? किसके लिए तुम जिओगे? ज्योतिष तुम्हारे हाथ
में उपकरण हो सकता है यदि तुम एसेंसियल को नॉन एसेंसियल से अलग कर सको।
गुलाब का फूल गुलाब का
फूल है, वहां कुछ और होने का कोई
प्रश्न ही नहीं है। और कमल कमल है। न तो कभी गुलाब कमल होेने की कोशिश करता है, न ही कमल कभी गुलाब होने का प्रयास करता है। इसी कारण वहां
कोई विक्षिप्तता नहीं है। उन्हें मनोविश्लेषक की जरूरत नहीं होती, उन्हें किसी मनोवैज्ञानिक की जरूरत नहीं होती। गुलाब स्वस्थ
है क्योंकि गुलाब अपनी वास्तविकता को जीता है । और
यही सारे अस्तित्व के साथ है सिवाय मनुष्य के। सिर्फ मनुष्य के आदर्श और चाहिए
होता है। ‘तुम्हें यह या वह होना
चाहिए’--और तब तुम अपने ही खिलाफ
बंट जाते हो। चाहिए और है दुश्मन है। और जो तुम हो उसके अलावा
कुछ और नहीं हो सकते। इसे अपने हृदय में गहरे उतरने दो: तुम वही हो सकते हो जो तुम
हो, कभी भी कुछ और नहीं। एक
बार यह सत्य गहरे उतर जाता है, ‘मैं सिर्फ मैं ही हो
सकता हूं’ सभी आदर्श विदा हो जाते
हैं। वे स्वतः गिर जाते हैं। और जब कोई आदर्श नहीं होता, वास्तविकता से सामना होता है। तब तुम्हारी आंखें यहां और अभी
हो जाती हैं, तब तुम जो है उसके लिए
उपलब्ध हो जाते हो। भेद, द्वंद्व, विदा हो जाते हैं। तुम एक हो।
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