Monday, August 19, 2019

भगवान कहां हैं ? कहां और कैसे मिलेगा..?


                                          भगवान कहां हैं..? कहां और कैसे मिलेगा ?
                                                 आइये जाने ...!
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से आने वाले तीन दिनों की चर्चाओं का मैं प्रारंभ करूंगा। एक युवा फकीर सारी पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकला। उसने सारी जमीन घूमी। पहाड़ों और रेगिस्तानों में, गांव और राजधानियों में, दूर-दूर के देशों में वह भटका और घूमा। और फिर सारे जगत का भ्रमण करके अपने देश वापस लौटा। जब यात्रा पर निकला था, तो जवान था; जब वापस आया, तो बूढ़ा हो चुका था। अपने देश की राजधानी में आने पर उसका बड़ा स्वागत हुआ। उस देश के राजा ने उसके चरण छुए और उससे कहा कि धन्य है हमारा भाग्य कि तुम हमारे बीच पैदा हुए। और तुमने हमारी सुगंध को सारी दुनिया में पहुंचाया। तुम्हारी कीर्ति के साथ हमारी कीर्ति गई। तुम्हारे शब्दों के साथ, हमने जो हजारों वर्षों में संगृहीत किया था, वह लोगों तक पहुंचा। और मैं भी एक प्रतीक्षा किए तुम्हारी राह देख रहा हूं। अनेक बार मेरे मन में यह ख्याल उठा है कि मेरा मित्र और मेरे देश का भाग्य जब सारी दुनिया से घूम कर लौटेगा, तो शायद मेरे लिए कुछ भेंट भी लाए। शायद सारी दुनिया में कुछ उसने खोजा हो जो मेरे काम का हो। तो मैं बड़ी आशा से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। मेरे लिए क्या लाए हो? वह फकीर और वह राजा बचपन के मित्र थे। वे एक ही स्कूल में पढ़े थे। राजा बड़ा सम्राट हो गया था। उसने अपने राज्य की सीमाएं बहुत बढ़ा ली थीं। और उसका मित्र फकीर भी सारी दुनिया में यश और कीर्ति अर्जित करके लौटा था। करोड़ों-करोड़ों लोगों ने उसे सम्मान दिया था। और दुनिया का कोई कोना न था जहां उसके चरण और उसकी वाणी न पहुंची हो। उस राजा ने कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि मेरे लिए क्या भेंट लाए हो? वह फकीर बोलाः मैंने भी यह सोचा था कि जरूर घर लौट कर यह बात पूछी जाएगी। और जरूर ही तुम कहोगे कि क्या लाए हो मेरे लिए? और मैंने दुनिया में बहुत सी चीजें देखी हैं और मैंने सोचा कि उन चीजों को मैं ले चलूं। लेकिन हर चीज लाते वक्त मुझे ख्याल आया, यह तो तुम्हारे पास पहले से ही मौजूद होगी। तुम्हारे पास कौन सी चीज की कमी है! तुमने दूर-दूर के देश जीत लिए हैं! तुम्हारे महलों में सारी दुनिया की संपदा आ गई! तुम्हारे पास कौन सी चीज की कमी होगी जो मैं ले चलूं? आखिर मैं थक गया और मुझे कोई चीज ऐसी न मालूम पड़ी जो तुम्हारे महलों में न पहुंच चुकी हो, जिसके तुम मालिक न बन चुके होओ। बहुत सोच कर एक चीज जरूर मैं ले आया हूं। लेकिन अकेले में और एकांत में उस चीज को मैं तुम्हें दूंगा। उस फकीर के पास कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता था, एक छोटा सा झोला था, जो उसके कंधे पर लटका था। उसमें क्या हो सकता था? ऐसी कौन सी चीज हो सकती थी जो राजा के पास न हो? क्योंकि फकीर ने खुद ही कहा कि मैं उन सारी चीजों को छोड़ आया हूं जिनका मुझे ख्याल पैदा हुआ कि तुम्हारे पास पहले से होंगी। उस फटे से झोले में क्या हो सकता था? बड़ी उत्सुकता और आकांक्षा से वह राजा उसे अपने महलों में ले गया। सारे लोग जब पीछे छूट गए, उसने उस फकीर से फिर कहा कि निकालें, दिखाएं मुझे, क्या ले आए हैं मेरे लिए? उस फकीर ने जो निकाला, आप भी नहीं सोच सकते कि वह क्या लाया होगा। वह एक बड़ी सस्ती सी, पर बड़ी अनूठी चीज ले आया था। उसने अपने झोले में से जो निकाला, बड़ी साधारण सी चीज थी। एक छोटा सा आईना था, एक छोटा सा दर्पण था चार पैसे का। और उसने उस राजा को वह दर्पण दिया। राजा ने उसे उलट-पलट कर देखा, उसने कहाः क्या? यह दर्पण ले आए हो? उस फकीर ने कहाः यह मुझे सबसे कठिन चीज मालूम पड़ी, जो राजाओं के पास नहीं होती। इसमें तुम खुद को देख सकोगे। और दुनिया में बहुत कम लोग हैं जो खुद को देखने में समर्थ होते हैं। और जिनके पास बहुत कुछ होता है–धन, संपत्ति, यश, वे तो अपने को देखने में और भी असमर्थ हो जाते हैं। तो बहुत खोज कर मैं यह दर्पण ले आया हूं ताकि तुम अपने को देख सको। इस दर्पण को सस्ता मत समझना। ऐसे तो घर-घर में दर्पण होते हैं, लेकिन खुद को देखने में कौन समर्थ हो पाता है? दर्पण में हम अपने को रोज देख लेते हैं, लेकिन क्या कभी हम अपने को देख पाए हैं? तो उस फकीर ने कहा कि यह दर्पण इस याद के लिए तुम्हें दे जाता हूं कि जिस दिन तुम अपने को देखने में समर्थ हो जाओगे, उस दिन ही समझना कि तुम्हें दर्पण उपलब्ध हुआ है। मैं भी सोचता था रास्ते में कि आपके लिए क्या ले चलूं? सोचा कि मैं भी दर्पण खरीद लूं और आपको एक दर्पण भेंट कर दूं। क्योंकि जमीन पर वे लोग कम होते जा रहे हैं जिनके पास दर्पण हो, जो खुद को उसमें देख सकें और पहचान सकें। पर मैंने कहाः पता नहीं, दर्पण किसी काम में आए या न आए! और दर्पण बड़ी कमजोर चीज है। पता नहीं, आपके हाथों में बचे या टूट जाए! और वह कहानी का भी क्या हुआ अंत में, यह भी अब तक पता नहीं चल सका कि वह राजा अपने को देखने में समर्थ हो पाया या नहीं। इतनी ही कहानी सुनी गई है। इसके बाद क्या हुआ, इसका कोई भी पता नहीं–कि उस दर्पण का क्या हुआ? उस राजा का क्या हुआ? तो मैं अगर दर्पण ले भी आऊं, तो उस दर्पण का क्या होगा, इसका कोई पता नहीं था। इसलिए फिर मैंने सोचा कि तीन दिन में वे बातें करूंगा, जिनसे आपके चित्त में एक दर्पण बन जाए और आप अपने को देखने में समर्थ हो सकें। तो आने वाले तीन दिनों में, आपके चित्त को दर्पण कैसे बनाया जा सके, उस संबंध में कुछ बातें कहूंगा। और आपका चित्त दर्पण बन जाए, तो वह दर्पण न तो फूट सकता है, न टूट सकता है। और वह दर्पण चार पैसे में किसी बाजार में भी नहीं मिल सकता। चार लाख में भी नहीं, चार करोड़ में भी नहीं। कितनी भी संपदा देकर उसे किसी बाजार से खरीदने का कोई उपाय नहीं। वह तो जब खुद को ही कोई निखारता है, खुद के ही जीवन को जब कोई घिसता है और खुद के ही पत्थर जैसे मन को जब कोई चमकाता है, तो वह दर्पण उपलब्ध होता है जिसमें खुद की छवि बनती है। और बड़े रहस्यों का रहस्य यह है कि जो खुद को जानने में समर्थ हो जाता है, वह परमात्मा को भी जान लेता है। और जो खुद को जानने में समर्थ नहीं होता, वह चाहे कुछ भी जान ले, उसके जानने का दो कौड़ी से ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिसके भीतर अज्ञान हो, उसके बाहर के ज्ञान का क्या अर्थ हो सकता है? जिसके भीतर का दीया बुझा हो, उसके घर के बाहर सूरज भी जल रहा हो, तो उसका क्या प्रयोजन है? जिसकी अपनी आंखें फूटी हों और बंद हों, रास्तों पर कितनी ही रोशनी हो, उस रोशनी से क्या होगा? लेकिन अगर भीतर दीया जल जाए, और रास्ते अंधकार से भरे हों, अमावस की रात से भरे हों, तो भी वह रास्ते का कोई खतरा नहीं है, उस अंधकार का कोई डर नहीं है। एक छोटा सा दीया भीतर हो, तो जहां भी हम कदम रखेंगे वहां प्रकाश हो जाएगा, अंधेरा रास्ता प्रकाशित हो उठेगा और हम उस रास्ते को पार कर सकेंगे। और बाहर के जगत में चाहे कितना ही अज्ञान हो, भीतर अगर ज्ञान की एक किरण भी फूट जाए, तो इस दुनिया भर का अज्ञान भी उस एक किरण के सामने बहुत कमजोर होता है। और भीतर अगर दर्पण मिल जाए, तो हम खुद को तो देख ही पाएंगे और उस खुद के देखने में हम यह भी जान पाएंगे कि उस खुद में ही वह भी छिपा था जो खुदा है, स्वयं में वह भी छिपा था जो सत्य है, स्वयं में वह भी मौजूद था जो कि भगवान है। और स्वयं में खोजे बिना चाहे हम किन्हीं मंदिरों की पूजा करें और किन्हीं मस्जिदों में प्रार्थनाएं पढ़ें और किन्हीं शिवालयों में जाकर हम दीये जलाएं, न कोई शिवालय है और न कोई मस्जिद और न कोई मंदिर काम का आएगा, क्योंकि मंदिर तो एक है जो मनुष्य के भीतर है। पत्थर और ईंटों के मंदिरों ने मनुष्य को परमात्मा से जोड़ा नहीं बल्कि तोड़ा है। मंदिर और मस्जिद दुश्मन की भांति खड़े हो गए हैं। मस्जिद और मंदिर में जाने वाले लोग एक-दूसरे के शत्रु होकर खड़े हो गए हैं। भगवान क्या किसी के बीच शत्रुता बन सकता है? परमात्मा क्या मनुष्य और मनुष्य को तोड़ने के लिए दीवाल बन सकता है? परमात्मा क्या कोई सीमा बन सकता है जो एक को दूसरे से अलग कर दे? निश्चित ही जो मंदिर और मस्जिद मनुष्य को मनुष्य से अलग करते हों, वे झूठे होंगे, पत्थरों से बनाए गए होंगे, उनमें बैठे हुए भगवान भी पत्थर से ज्यादा नहीं हो सकते हैं। लेकिन एक और मंदिर भी है, जो मन का है। और वह जो मन का मंदिर है, वह न हिंदू का है, और न मुसलमान का है, और न ईसाई का, और न जैन का। क्योंकि मन तो मन है, न वह हिंदू होता है, न मुसलमान और न ईसाई। उस मन के मंदिर को अगर कोई उपलब्ध हो जाए, खोज कर ले, तो उसी में वह प्रभु को भी पा लेगा। तो उस दर्पण की हम चर्चा करेंगे इन तीन दिनों में। और वह खुद के भीतर दर्पण कैसे विकसित हो जाए? कैसे हम उसको दर्पण को निर्मित कर लें और उस दर्पण में अपने को पा लें? क्योंकि जो मनुष्य अपने को भी नहीं पा सका है, वह और क्या पा सकेगा? और खुद को छोड़ कर चाहे वह सारे जगत का साम्राज्य भी पा ले, तो भी आखिर में पाएगा–उसके हाथ खाली के खाली हैं। सिकंदर जिस दिन मरा, उस दिन जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, लोग हैरान हो गए। एक ही बात उस दिन उस राजधानी में राजपथ पर गूंजने लगी, हजार-हजार ओंठों पर, हजार-हजार मुंह से एक ही बात पूछी जाने लगी कि यह क्या है? सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे! ऐसी अरथी कभी भी नहीं निकली थी। लोग पूछने लगे कि क्या कोई भूल हो गई है? अरथी के बाहर दोनों हाथ क्यों लटके हुए हैं? हाथ तो अरथी के भीतर होते हैं। धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने मरने के पहले कहा थाः मेरे हाथ अरथी के बाहर रखे जाएं, ताकि लोग देख लें, मैं भी खाली हाथ दुनिया से जा रहा हूं। मैंने बहुत कुछ जीता, जमीन करीब-करीब जीत ली थी। और जो भी ज्ञात था, वह सब मेरा साम्राज्य हो गया था। लेकिन मरते वक्त मैं अनुभव करता हूं कि मुझसे ज्यादा दरिद्र आदमी और कोई नहीं है। और दुनिया यह बात देख ले कि एक सम्राट भी खाली हाथ मरता है। इसलिए मेरे हाथों को अरथी के बाहर खुले लटके रहने देना। हम सबके हाथ भी खाली ही जाते हैं। और खाली जाएंगे ही। क्योंकि एक ही संपदा है जो प्राणों को भर सकती है, और वह हमारे भीतर है। और बाहर जो भी संपदा है, उसके हम भ्रम में रहें भला कि उसे इकट्ठा करके हम अपने प्राणों को भर लेंगे, परिपूरित कर लेंगे, फुलफिलमेंट हो जाएगा, लेकिन आज तक यह न हुआ है और न होगा। आप भी उसके अपवाद नहीं हो सकते हैं। जीवन का नियम यही हैः जो बाहर है, वह भरने का भ्रम देता है, लेकिन भर नहीं पाता। और जो भीतर है, वही केवल भर सकता है। और उसे लाने को भी कहीं जाना नहीं, कोई यात्रा नहीं करनी, कोई युद्ध नहीं करना, कोई आक्रमण नहीं करना, केवल आंखें फेरनी हैं और भीतर खोज लेना है। वह दर्पण मिल जाए भीतर का, तो यह खोज पूरी हो सकती है। हममें से सारे लोग ही शायद उसकी खोज में हैं। हममें से शायद ही कोई व्यक्ति हो, जो दुखी, पीड़ित और अशांत नहीं है। हममें से शायद ही कोई हो, जो खाली-खाली अनुभव नहीं करता। हममें से शायद ही कोई हो, जिसे यह अहसास नहीं होता कि मेरा जीवन पानी पर खींची हुई लकीरों की भांति रोज मिटा जा रहा है और मेरे हाथों में कुछ भी उपलब्धि नहीं है। कोई पाना नहीं है, मैं खाली और रिक्त जी रहा हूं और मरा जा रहा हूं। यह जो अहसास है खाली और रिक्त होने का, यह जो एंप्टीनेस है सारी दुनिया में, हर आदमी को अनुभव हो रही है, इस अनुभव को भरने के वह उपाय करता है। लेकिन वे उपाय भी अगर बाहर ही हों, तो उन उपायों से भी कुछ भी नहीं हो पाता। जब हम पीड़ित और परेशान होते हैं, तो हम भगवान की तलाश में निकलते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में खोजते हैं उसे। पहाड़ों पर, तीर्थों में खोजने जाते हैं उसे। दूर की यात्राएं करते हैं उसके लिए। लेकिन एक बात भूल जाते हैं कि हमारे भीतर जो प्राणों का प्राण बैठा है, क्या कभी उसको भी खोजेंगे? क्या कभी उसको भी पहचानेंगे? इसके पहले कि कोई किसी और खोज में जाए, जिसके पास भी थोड़ी समझ और बोध है, उसे अपनी खोज कर लेनी चाहिए। हो सकता है जिसे हम खोजना चाहते हों, वह हमारे भीतर मौजूद हो। और हो सकता है कि जहां हम उसे खोजने जा रहे हैं, वहां वह बिल्कुल ही मौजूद न हो। एक अंधेरी रात में, एक चर्च पर, एक नीग्रो ने जाकर द्वार खटखटाया। चर्च के पादरी ने द्वार खोला। काश, उसे पता होता कि एक काला आदमी द्वार बजा रहा है, तो वह द्वार भी न खोलता। क्योंकि वह चर्च जो था सफेद चमड़ी के लोगों का चर्च था। अब तक जमीन पर आदमी ऐसा मंदिर नहीं बना पाया जो सबका हो। और जो मंदिर सबका नहीं है वह परमात्मा का कैसे हो सकेगा? सफेद चमड़ी के लोगों के मंदिर हैं, काली चमड़ी के लोगों के मंदिर हैं; हिंदुओं के मंदिर हैं, मुसलमानों के मंदिर हैं; जैनों के मंदिर हैं, बौद्धों के मंदिर हैं; ब्राह्मणों के मंदिर हैं, शूद्रों के मंदिर हैं; लेकिन मनुष्य का कोई मंदिर नहीं। वह मंदिर भी मनुष्य का नहीं था। दरवाजा खोल दिया तो देखा कि एक नीग्रो खड़ा है, काला आदमी। पुराने दिन होते तो उसने कहा होताः हट शूद्र यहां से, भगवान के मंदिर में तेरे लिए कोई जगह नहीं है! और पुराने दिन होते तो शायद उसकी गर्दन कटवा देता, या उसके कानों में शीशा पिघलवा कर भरवा देता कि तू इस मंदिर के आस-पास क्यों आया! लेकिन जमाना बदल गया है, तो उस चर्च के पादरी को उसे प्रेम से समझा कर लौटा देना पड़ा। उसने उस नीग्रो को कहाः मेरे मित्र, किसलिए मंदिर में आना चाहते हो? उसने कहाः मन है मेरा दुखी, चित्त है मेरा पीड़ित और चिंताओं से भरा। शांत होना चाहता हूं। जीवन बीत गया मालूम होता है और कुछ भी मैंने पाया नहीं। भगवान की शरण चाहता हूं। यह एक ही मंदिर है गांव में, मुझे भीतर आने दो, भगवान का सान्निध्य मिलने दो। उस पादरी ने कहाः मित्र, जरूर आने दूंगा। लेकिन जब तक मन शुद्ध न हो, चित्त पवित्र न हो, प्राण शांत न हों, आत्मा ज्योति से न भर जाए, तब तक भगवान से मिलना नहीं हो सकेगा। आकर भी क्या करोगे? जाओ और पहले अपने मन को शुद्ध करो और शांत करो, हृदय को प्रार्थना और प्रेम से भरो, फिर आना। फिर मैं तुम्हें भीतर प्रवेश दूंगा। वह नीग्रो वापस लौट गया। उस पादरी ने सोचाः न होगा कभी इसका मन शांत और न यह दुबारा कभी आएगा। लेकिन कोई दो-तीन महीने बीत जाने के बाद एक दिन बाजार में उस पादरी ने देखा कि वह नीग्रो चला जा रहा है। लेकिन वह तो आदमी दूसरा हो गया मालूम पड़ता है। उसकी आंखों में कोई नई रोशनी, कोई नई झलक। उसके पैरों की चाल बदल गई है, उसके चारों तरफ कोई वायुमंडल ही और हो गया है, उसके ओंठों पर कोई और ही मुस्कुराहट है जो इस जमीन की नहीं है। तो उसने उस नीग्रो को पूछा और कहा कि तुम वापस नहीं आए? वह नीग्रो हंसने लगा और उसने कहाः मैं तो आना चाहता था। और उसी आने के लिए मैंने प्रार्थनाएं कीं, उसी आने के लिए मैंने भगवान से न मालूम कितनी मनौतियां मानीं, उसी आने के लिए मैंने अपने मन को सब भांति शांत किया। लेकिन मैं क्या करता, खुद भगवान ने मुझे रोक दिया कि मत जाओ। एक रात जब मैं प्रार्थनाएं करके सो गया, तो मैंने सपना देखा कि भगवान खड़े हैं। और वे मुझसे पूछ रहे हैं कि क्यों तू मुझे पुकार रहा है? क्यों तू मुझे बुला रहा है? तो मैंने कहा कि वह जो हमारे गांव का मंदिर है, चर्च है, मैं उसमें प्रवेश पाना चाहता हूं, इसी के लिए सारी प्रार्थनाएं कर रहा हूं। तो भगवान हंसने लगे और उन्होंने कहाः तू बड़ा पागल है! यह ख्याल छोड़ दे। दस साल से मैं खुद उस चर्च में घुसने की कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी मुझे भी नहीं घुसने देता! तू यह ख्याल छोड़ दे। और सच्चाई तो यह है कि उस मंदिर में ही नहीं, आज तक किसी मंदिर में किसी पुरोहित ने भगवान को प्रवेश नहीं पाने दिया। आज तक जमीन पर कोई मंदिर भगवान का घर नहीं बन सका। कई कारण हैं न बनने के। पहली बात, भगवान प्रेम है और हमारे सब मंदिर व्यवसाय हैं। प्रेम का और व्यवसाय से क्या संबंध हो सकता है? जहां व्यवसाय है, वहां प्रेम का कोई प्रवेश नहीं। दूसरी बात, सब मंदिर आदमी के बनाए हुए हैं। भगवान आदमी का बनाया हुआ नहीं है। आदमी की बनाई हुई चीज में भगवान का प्रवेश असंभव है। तीसरी बात, आदमी जो भी बनाएगा, आदमी से छोटा होगा। बनाने वाले से बनाई गई चीज बड़ी नहीं हो सकती। स्रष्टा से बड़ी उसकी सृष्टि नहीं हो सकती। आदमी खुद ही बहुत छोटा और क्षुद्र है, उसके बनाए हुए मंदिर और भी छोटे और क्षुद्र हैं। और परमात्मा है विराट, असीम। इन क्षुद्र घेरों में और दीवालों में उसका आगमन कैसे हो सकता है? आज तक नहीं हुआ, आगे भी नहीं होगा। लेकिन जिन लोगों को यह ख्याल पैदा होता है कि हम सत्य की खोज करें, वे किन्हीं मंदिरों में उस खोज को करने लगते हैं। इससे बड़ी भूल और कोई दूसरी नहीं हो सकती। सत्य की खोज करनी हो, तो खुद को मंदिर बनाना होगा, इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। कोई जमीन पर मंदिर नहीं है जहां सत्य की खोज हो सके। हां, हर आदमी खुद मंदिर बन सकता है, जहां भगवान का प्रवेश हो सके। और यह खुद आदमी मंदिर कैसे बन जाए? चित्त दर्पण बन जाए तो आदमी मंदिर बन सकता है। चित्त दर्पण बन जाए तो आदमी इसलिए मंदिर बन सकता है कि उसी दर्पण में भगवान की छवि उतरनी शुरू हो जाती है। एक बार ऐसा हुआ, एक अरबी बादशाह के दरबार में कुछ यूनानी चित्रकार आए। और उन चित्रकारों ने कहाः हम अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहते हैं। लेकिन अरबी बादशाह के दरबार में अरब के बड़े-बड़े चित्रकार थे, उन्हें बड़ी इस बात से प्रतिस्पर्धा पैदा हुई और उन्होंने कहाः कोई हमारी कला कम है जो इन चित्रकारों को आमंत्रण दिया गया है? अगर ये कुछ प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो हम भी कुछ प्रदर्शन करना चाहते हैं। दोनों चित्रकारों की मंडलियों को, यूनानी और अरबियों को एक बड़ा भवन दे दिया गया कि वे अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करें। अरबी चित्रकारों ने बड़ी अदभुत दीवालों पर चित्रकारी की, बड़े खूबसूरत चित्र बनाए। छह महीने तक निरंतर वे दिन-रात श्रम करते रहे और उन्होंने एक पूरी दीवाल पर जादू खड़ा कर दिया। उनकी मेहनत तो देखने जैसी थी, उनका श्रम तो अदभुत था। लेकिन और भी बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी कि यूनानी चित्रकार कुछ भी नहीं कर रहे थे। न उनके पास तूलिकाएं थीं और न रंग था। और राजा ने बहुत बार उनको कहा कि तुम्हें कोई जरूरत हो, तो उन्होंने कहाः हमें कोई भी जरूरत नहीं। उन्होंने अपनी दीवाल पर एक पर्दा लटका लिया था। दोनों दीवालें आमने-सामने थीं। उन्होंने अपनी दीवाल पर एक पर्दा लटका लिया था। अरबी चित्रकार दीवाल पर पागल की भांति मेहनत कर रहे थे और दीवाल को एक अदभुत चित्र में निर्मित कर दिया था। ये यूनानी चित्रकार क्या कर रहे थे? वे अपने पर्दे के पीछे क्या करते थे? न तो वे कभी रंग ले जाते दिखाई पड़े, न कभी तूलिकाएं, लेकिन वे भी दिन-रात भीतर लगे थे, क्या कर रहे थे? सारे नगर में चर्चा थी, उत्सुकता थी। छह महीने पूरे हों, तो लोग देखें। छह महीने पूरे हुए, राजा गया। राजा भी दीवाना था जानने को कि वे क्या कर रहे हैं? वे जब कोई सामान नहीं ले जाते, तो क्या करते होंगे? अंतिम दिन आ गया और राजा गया। अरबी चित्रकारों की चित्रकला देखने जैसी थी। दंग हो गए लोग देख कर। इतने सजीव चित्र उन्होंने बनाए थे, जैसे वे दीवाल से बाहर निकल आएंगे। ऐसे सजीव वृक्ष उन्होंने दीवाल पर पेंट किए थे कि भूल हो जाए कि वे असली हैं या नकली। दीवाल पर ऐसे रास्ते थे कि मन होने लगे कि उन पर चल पड़ो। बहुत अदभुत था। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कहाः मेरी कल्पना भी न थी कि मेरे दरबार में ऐसे चित्रकार हैं! मुझे ख्याल भी न था कि इतनी बड़ी कला, इतनी क्षमता तुममें है! और फिर वह मुड़ा दूसरी दीवाल की तरफ और उसने यूनानी चित्रकारों को कहाः हटाओ अपना पर्दा। तुमने तो हमारी नींद तक मुश्किल कर दी है, रात में भी सपना आता है कि तुम क्या कर रहे हो आखिर? उन्होंने पर्दा हटा दिया और लोग देख कर हैरान रह गए। जो चित्र अरबी चित्रकारों ने बनाया था, वही चित्र और भी अदभुत रूप में सामने की दीवाल पर मौजूद था! यूनानी चित्रकारों ने कोई चित्र नहीं बनाया, वे तो केवल दीवाल को घिस कर दर्पण बनाते रहे। उन्होंने सारी दीवाल घिस डाली थी। छह महीने में उन्होंने दीवाल को दर्पण बना दिया था। अरबी चित्रकारों का चित्र अदभुत था, अदभुत थी उनकी कला, लेकिन दर्पण में वही चित्र और हजार गुना सुंदर होकर दिखाई पड़ने लगा था। वे यूनानी चित्रकार बोलेः हम तो केवल दर्पण बनाना जानते हैं। चित्र तो परमात्मा ने बना दिए हैं, हम दर्पण बना देते हैं। और परमात्मा और हजार गुना खूबसूरत होकर उन दर्पणों में झलक आता है। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है, हमारे पास दर्पण चाहिए, और दर्पण हो तो वह दिखाई पड़ेगा। और वह दिखाई पड़ेगा, तो हम सब उसके मंदिर हो जाएंगे। और जब कोई आदमी उसका मंदिर हो जाता है, तभी उसके जीवन में आता है आनंद, तभी उसके जीवन में आता है सौंदर्य, तभी उसके जीवन में पैदा होता है संगीत, तभी उसके जीवन में कोई नई क्रांति घटित हो जाती है, वह कुछ से कुछ और हो जाता है। तो इन आने वाले तीन दिनों में, कैसे हम दर्पण बन जाएं, कैसे हम मंदिर बन जाएं, उसकी हम बात करेंगे। मैं बात करूंगा, लेकिन मेरी बात करने से आप मंदिर बन नहीं सकते। मेरी बात करने से अगर आप दर्पण बन सकते होते, तब तो बड़ी आसान बात थी। मैं बात करूंगा, वह बात अगर आपके हृदय में किसी कोने में पहुंच जाए, अगर आप अपने हृदय में दरवाजा खोलें और उसको भीतर जाने दें, तो वह आपके भीतर बीज बन सकती है। और वह बीज आपके भीतर विकसित हो सकता है। लेकिन वह विकास करना होगा आपको, वह बदलाहट करनी होगी आपको। इतना जरूर मैं कह सकता हूं कि वह बदलाहट कठिन नहीं है, बहुत आसान है, बहुत सरल है। इसलिए सरल है वह बात कि परमात्मा को पाने से ज्यादा सरल और क्या बात हो सकती है? अगर परमात्मा को पाना ही कठिन हो गया, तो फिर तो और सब बातें और कठिन हो जाएंगी। क्योंकि परमात्मा है सब जगह उपलब्ध और सबके भीतर मौजूद। असलियत तो यह है कि परमात्मा को खोना असंभव है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही यह है कि जिसमें हम जी रहे हैं, जो हमारा जीवन है, जो हमारी श्वास-श्वास और हमारा प्राण-प्राण है, उसे हम खो कैसे सकते हैं? जैसे मछली सागर को नहीं खो सकती, सागर में होना ही उसका जीवन है, उसकी आत्मा है, ऐसे ही हम भी परमात्मा को नहीं खो सकते। लेकिन जो परमात्मा निरंतर हमें उपलब्ध है, उसका भी हमें स्मरण नहीं और बोध नहीं। वह बोध थोड़ी ही सरलता से उपलब्ध हो सकता है। वह थोड़े ही सहज और स्वाभाविक होने से उपलब्ध हो सकता है। बड़ी सरल है बात। लेकिन सरल बात भी कभी-कभी बहुत कठिन मालूम होती है। क्योंकि हम उस सरल बात के विरोध में इतने दूर तक चले गए होते हैं कि लौटना कठिन हो जाता है। हम इतने दूर चले गए होते हैं किसी सरल बात के विरोध में कि लौटना कठिन हो जाता है। एक आदमी पेकिंग के बाहर कोई तीन-चार मील की दूरी पर रास्ते पर चला जाता था और उसने एक छोटे से बच्चे से पूछाः पेकिंग कितनी दूर है? उस लड़के ने कहाः जिस तरफ आप जा रहे हैं, अगर उसी तरफ आप चलते चले जाएं, तो इस जिंदगी में पेकिंग पहुंचना कठिन है। लेकिन अगर आप कृपा करें और लौट पड़ें, तो चार मील से ज्यादा फासला नहीं है। वह जिस तरफ चला जा रहा था, अगर वह उसी तरफ चलता चला जाए, तो पूरी जमीन का चक्कर लगाए, तब पेकिंग पर पहुंच सकता था। लेकिन अगर लौट पड़े, तो चार मील का फासला था, जो कोई फासला नहीं था। हम जिस तरफ चले जा रहे हैं, वह परमात्मा की बिल्कुल विरोधी दिशा है, वह शांति की विरोधी दिशा है, वह सत्य की विरोधी दिशा है। अगर हम उस पर ही चले जाएं, तो पेकिंग तो कोई पहुंच भी सकता है पूरे जमीन का चक्कर लगा कर, क्योंकि कोई जमीन बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन जिस रास्ते पर हम चलते हैं जीवन के, वह अनंत है। और हम चलते चले जाएं तो परमात्मा से दूरी निरंतर बढ़ती चली जाती है। लेकिन यदि हम लौटने का साहस करें, तो शायद हम लौटें और परमात्मा मौजूद है। जैसे कोई सूरज की तरफ पीठ किए खड़ा हो और पूछे कि सूरज कहां है? मैं कैसे पहुंचूं? तो हम उससे कहेंगेः कहीं पहुंचना नहीं है, केवल तू पीठ फेर ले और आंखें उस तरफ ले आ जिस तरफ तू पीठ किए है, तो सूरज तेरी आंखों के सामने आ जाएगा। शायद पीठ फेरने की बात है और हम परमात्मा के सामने आ सकते हैं। तो कैसे यह पीठ फेरेंगे, उसकी बात तो कल सुबह से आपसे करूंगा। यह तो प्राथमिक चर्चा है थोड़ी सी, आपको सिर्फ यह ख्याल दिलाने को कि हम तीन दिनों में क्या करने वाले हैं। एक निवेदन हैः जो भी व्यक्ति उत्सुक हो, वह पूरे-पूरे तीन दिन आए, नहीं तो बिल्कुल न आए। जो भी उत्सुक हो, वह कल सुबह से आए तो फिर पूरे तीन दिन आए, नहीं तो कल सुबह से न आए। कोई भीड़ करने की यहां जरूरत नहीं है। आना हो तो पूरे तीन दिन आने का ख्याल हो तो आना चाहिए, नहीं तो नहीं आना चाहिए। क्योंकि अधूरी बातें सुनना कभी-कभी न सुनने से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है। आधी बातें सुनना न सुनने से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है। अधूरा ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है। इसलिए पहला निवेदन तो यह है कि आज की बात की तो कोई फिकर नहीं, लेकिन कल सुबह से आना है तो फिर पूरे दिन, पूरे वक्त, पूरी चर्चाओं में मौजूद होना हो तो ही आना है, नहीं तो नहीं आना है। दूसरी बात, कोई भी जो बातें मैं कहूंगा इन तीन दिनों में, उन पर निर्णय लेने की, जजमेंट करने की जल्दी मत करना, जब तक कि मेरी पूरी बात न सुन लें। तो निर्णय को थोड़ा स्थगित रखना। जब मेरी तीन दिन की पूरी बात सुन लें, तब सोचना और विचार करना। मेरी एक-एक बात पर अगर विचार करना शुरू किया, तो समझना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि हो सकता है कि जो मैं कहूं वह शुरू-शुरू में अटपटा मालूम पड़े। लेकिन अगर तीन दिन पूरी बात को समझने की कोशिश की, तो हो सकता है उसका अटपटापन चला जाए और तीन दिन में पूरी बात ख्याल में आ जाए। तो जल्दी निर्णय करने की कोशिश मत करना। जीवन और जीवन के सत्य इतने रहस्यपूर्ण हैं और हमारी समझ इतनी छोटी कि जब हम उससे निर्णय कर लेते हैं, तो हम अक्सर भूल में पड़ जाते हैं। तो जल्दी निर्णय नहीं करेंगे, दूसरा निवेदन। रोज-रोज फुटकर निर्णय नहीं करेंगे, एक-एक बात पर नहीं सोचेंगे। पूरी बात मेरी सुन लेंगे तीन दिन। फिर सोचने का काफी वक्त होगा। फिर धीरे-धीरे उस पर सोचना। हमारी आदतें गलत हैं। इधर मैं बोलता हूं, उधर आप सोचना जारी रखते हैं कि यह जो मैं कह रहा हूं, ठीक है या गलत? यह जो मैं कह रहा हूं, यह गीता में लिखा है या नहीं? यह जो मैं कह रहा हूं, यह क्राइस्ट ने कहा या नहीं? महावीर ने यही कहा या नहीं? जब मैं बोलता हूं, उसी वक्त अगर आप सोचते हैं, तो आपको पता है, मन एक समय में एक ही काम कर सकता है, या तो सुन सकता है या सोच सकता है। तो अगर आप उसी वक्त सोचते हैं, तो आप सुन न पाएंगे। और जिस बात को आप सुन ही न पाएंगे, उसको सोच कैसे पाएंगे? तो पहले सुन लेना, सोचना बाद में कर लेना। कोई जल्दी नहीं है। और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि सुनने का मतलब मान लेना। नहीं। सुनने का मतलब यह भी नहीं है कि मैं जो कहूं उसे मान लेना। मान लेने की भी जल्दी मत करना। क्योंकि मान लेना भी एक निर्णय है। सुनना सिर्फ, न मानने की जल्दी, न न मानने की जल्दी; न स्वीकार, न अस्वीकार, सिर्फ चुपचाप मौन से सुन लेना काफी है। और अगर तीन दिन मौन से बात को सुना भी, तो सुनते-सुनते ही, अगर उस बात में कोई सच्चाई है, तो वह आपके प्राणों तक पहुंच जाएगी। और अगर वह बात गलत है, तो उसके गलत होने का भी स्पष्ट बोध आपको हो जाएगा। एक फकीर एक गांव में नया-नया पहुंचा था। उस गांव के लोगों ने कहा कि चलो, शुक्रवार का दिन था और मस्जिद में नमाज का दिन था, तो उन गांव के लोगों ने कहा कि आओ और मस्जिद में आज हमें समझाओ कुछ। वह गया। वह मंच पर बैठा और उसने कहाः मेरे मित्रो, इसके पहले कि मैं बोलना शुरू करूं, मेरी एक खराब आदत है, मैं एक प्रश्न पूछता हूं हमेशा। वह प्रश्न मैं आज भी पूछूंगा। और तुम सबको उसका उत्तर देना पड़ेगा। और उस फकीर ने पूछाः मैं यह पूछना चाहता हूं कि मैं जिस संबंध में बोलूंगा, आप लोग उस संबंध में कुछ जानते हैं या नहीं? उन सारे लोगों ने कहाः हम कुछ भी नहीं जानते, हमें कुछ भी पता नहीं है। वह फकीर मंच से नीचे उतर गया और उसने कहा कि क्षमा करें, फिर मैं न बोल सकूंगा। क्योंकि जो लोग कुछ भी नहीं जानते, उनके साथ सिर खपाना फिजूल है, बेकार है। लोग बड़ी हैरानी में पड़ गए! वह फकीर उठ कर चला गया। फिर दूसरा शुक्रवार आया, उस गांव के लोगों ने कहाः बड़ा अजीब फकीर है। अब फिर उसके पास चलें। वे फिर गए और उन्होंने कहा कि चलो, शुक्रवार का दिन आ गया, उपदेश करो। वह फकीर फिर राजी हो गया और आ गया। मंच पर बैठा और उसने कहाः जैसी मेरी खराब आदत है, मैं एक प्रश्न बिना पूछे कभी अपनी बात शुरू नहीं करता। और तुम सबको उत्तर देना पड़ेगा। लोग तैयार थे लेकिन। पिछली बार भूल हो गई थी। उसने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं कि मैं जिस संबंध में बोलूंगा, आपको उस संबंध में कुछ पता है या नहीं? सारे लोगों ने कहाः हमको पता है। पिछली दफा भूल हो गई थी यह कह कर कि नहीं पता है। वह फकीर नीचे उतर गया और उसने कहाः जिनको सब कुछ पता है, उनके साथ सिर पचाना फिजूल है। मैं वापस जाता हूं। अब तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए। लेकिन तीसरा शुक्रवार आ गया। और उन्होंने कहाः एक मौका और लेना चाहिए। यह आदमी है कैसा? वे गए और उन्होंने उस फकीर से कहा कि चलें, शुक्रवार का दिन आ गया, उपदेश करें। वह फिर राजी हो गया। वह वापस आकर मंच पर बैठा, उसने कहाः जैसी कि मेरी सदा की आदत है, एक प्रश्न बिना पूछे मैं कभी चर्चा शुरू नहीं करता। लोग तैयार थे। उसने पूछा कि यह जो मैं बोलने वाला हूं, उस संबंध में कुछ पता है या नहीं? तो लोगों ने कहाः कुछ लोगों को पता है और कुछ लोगों को पता नहीं है। वह फकीर नीचे उतर कर खड़ा हो गया और उसने कहाः फिर जिनको पता है, वे उनको बता दें जिनको पता नहीं है। मैं जाता हूं। मेरी यहां क्या जरूरत है? चौथा शुक्रवार भी आ गया, लेकिन चौथा कोई उत्तर नहीं था लोगों के पास। वह फिर वही बात पूछेगा, अब क्या करेंगे? तीन ऑल्टरनेटिव, तीन विकल्प हो सकते थे। तीनों खत्म हो गए थे। चौथा कोई विकल्प नहीं था। अब इस फकीर के साथ झंझट हो गई थी। अब क्या करें उस गांव के लोग? समझ लीजिए वह फकीर मैं ही हूं और आप ही उस गांव के लोग हैं, क्या करिएगा? तीन विकल्प के अलावा चौथा विकल्प है? तीन उत्तर के अलावा चौथा उत्तर है? उस गांव में उस फकीर का प्रवचन न हो सका, क्योंकि गांव के लोग चौथा उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सके। चौथा उत्तर लेकिन है। चौथा उत्तर यह था कि उन्हें कोई भी उत्तर नहीं देना था, उन्हें चुप रह जाना था। वह फकीर जरूर बोलता। उन्हें मौन रह जाना था। उन्हें कोई बात नहीं कहनी थी। उन्हें कोई जल्दी नहीं करनी थी। वे चुप रह जाते, फकीर जरूर बोलता। क्योंकि केवल उन्हीं लोगों के सामने बोला जा सकता है जो चुप हों। जो चुप नहीं हैं, उनके सामने कुछ भी नहीं बोला जा सकता। तो यही प्रार्थना आज की संध्या मैं आपसे करूंगा कि इन तीन दिनों में आंतरिक रूप से थोड़ा सा चुप और मौन होकर, जो मेरे हृदय में कुछ बातें हैं वह मैं आपसे कहूं, तो सुनने की कृपा करना। आज की रात तो इतनी ही बात। चित्त को एक दर्पण बनाना है, ताकि परमात्मा पाया जा सके। चित्त दर्पण बन सकता है। सरल है यह कीमिया, सरल है यह राज चित्त को दर्पण बना लेने का। उसका मेथड, उसकी विधि, उसकी हम बात करेंगे। मैं बात करूंगा, तो जरूरी है कि आप चुप रहें। नहीं तो बात नहीं हो सकेगी। अगर मेरे ऊपर यह जिम्मा है कि मैं तीन दिन कुछ बातें आपसे करूं, तो आप पर यह जिम्मा होगा कि तीन दिन आप चुप होंगे। नहीं तो फिजूल हो जाएगी बात। और जो उस फकीर ने किया, वही फिर मुझे भी करना चाहिए। उतना कठोर मैं नहीं हूं, उतना नहीं कर पाऊंगा। इसलिए बेफिकर रहें। लेकिन आप भी दया करेंगे और कठोर न होंगे। और थोड़ा चुप, मौन, साइलेंस से बातों को सुनने की कोशिश करेंगे, तो शायद वे बातें आपके प्राणों तक पहुंच सकें। जमीन में हम बीज बोते हैं। पथरीली जमीन में बीज भीतर नहीं पहुंच पाता, पत्थर रोक देते हैं। पत्थर न हों, तो बीज भीतर पहुंच जाता है, जड़ें फैला लेता है, अंकुर फूट पड़ता है, पौधा बन जाता है। जो मन बेचैन बातचीत में लगा रहता है अपने भीतर, पत्थर की तरह हो जाता है, उसके भीतर कोई बात नहीं पहुंचती, कोई बीज नहीं पहुंचता, फिर उसमें कोई अंकुर नहीं आता। लेकिन जो मन मौन होता है, शांत होता है, साइलेंस में सुनता और समझता है, वह मन उस जमीन की भांति होता है जिसमें पत्थर नहीं हैं। उसमें बीज भीतर प्रविष्ट हो जाता है, उसकी जड़ें फैल जाती हैं, उसमें अंकुर आ जाते हैं। वह जीवन बदल जाता है। बस इतनी ही थोड़ी सी बात आज की रात कहूंगा।   मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। अंत में मेरे प्रणाम स्वीकार करें।ओशो
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