Tuesday, August 20, 2019

भगवान कहां है ..? असली सत्य और परम सत्ता के विषय मे जाने...

 भगवान कहां है ..? असली सत्य और परम सत्ता के विषय मे जाने...

अपने माहिं टटोल - सत्य की खोज
                   एक सम्राट बूढ़ा हो गया था। उसके तीन लड़के थे। और तीनों के बीच में उसे निर्णय करना था कि किसे राज्य को सौंप दे। बड़ी कठिनाई थी। वे तीनों लड़के सभी भांति एक-दूसरे से ज्यादा योग्य थे। तय करना कठिन था– किसकी क्षमता, किसकी योग्यता ज्यादा है। तो उस सम्राट ने अपने बूढ़े नौकर को पूछा, जो कि गांव का एक किसान था। उससे पूछाः मैं कैसे इस बात की पहचान करूं, कैसे इस बात को जानूं कि कौन सा युवक राज्य को सम्हाल सकेगा और विकसित कर सकेगा? उस किसान ने कहाः सरल और छोटी सी तरकीब है। और उसने कोई तरकीब सम्राट को बतलाई। एक दिन सुबह सम्राट ने अपने तीनों लड़कों को बुलाया और उन्हें एक-एक बोरा गेहूं का भेंट किया और कहाः इसे सम्हाल कर रखना। मैं तीर्थयात्रा पर जाता हूं। शायद वर्ष लगें, दो वर्ष लगें। जब मैं लौटूं तो तुम उत्तरदायी होओगे इस अनाज के जो मैंने तुम्हें दिया। इसे सुरक्षित वापस लौटाना जरूरी है। यह दायित्व सौंप कर वह सम्राट तीर्थयात्रा पर चला गया। बड़े लड़के ने सोचाः गेहूं को सम्हाल कर रखना जरूरी है। उसने तिजोड़ी में गेहूं बंद कर दिए और भारी ताले उसके ऊपर लटका दिए, ताकि एक भी दाना खो न जाए और पिता जब लौटे तो उसे पूरे दाने वापस किए जा सकें। उससे छोटे भाई ने सोचाः दाने तिजोड़ी में बंद करके रख दूंगा, पता नहीं पिता कब तक आएं, दाने सड़ जाएं और राख हो जाएं, तो मैं क्या लौटाऊंगा? तो उसने उन दानों को एक खेत में फिंकवा दिया, ताकि उनसे फसल पैदा हो और जब पिता आए तो ताजे दाने उसे वापस दिए जा सकें। लेकिन उसने खेत में इस भांति फिंकवा दिया, जैसा कोई किसान कभी खेत में दानों को नहीं फेंकता है। न तो उसने यह बात देखी कि उस खेत के कंकड़-पत्थर अलग किए गए हैं, न उसने यह देखा कि उस खेत की घास-पात दूर की गई है। उसने इस बात की कोई फिकर न की, वह कोई किसान न था, वह एक राजकुमार था। उसे इस बात का कोई पता भी न था कि गेहूं कैसे पैदा होते हैं, बीज कैसे पौधे बनते हैं। उसने तो गेहूं फिंकवा दिए, जैसे कोई अंधकार में फेंक दे। और जहां फिंकवा दिए, न तो उस जमीन की जांच की गई कि वह जमीन कैसी थी! वहां अनाज पैदा होगा या नहीं होगा! वहां जो घास-पात है, पैदा हुए अनाज को वह समाप्त कर जाएगा, इसका भी कोई ख्याल नहीं रखा गया। और वह निश्चिंत हो गया। और वह निश्चिंत हो गया कि पिता जब आएंगे तब नये दाने वापस किए जा सकेंगे। तीसरे छोटे भाई ने सोचाः दानों को घर में बंद करके रखना तो नासमझी होगी, नष्ट हो जाने के सिवाय और क्या परिणाम होगा! जैसा बड़े भाई ने किया है, वैसा करने को वह राजी न हुआ। दानों को बो देना जरूरी था, लेकिन अंधेरे में, और अपरिचित जमीन पर, और बिना तैयार की गई जमीन पर फेंक देना भी नासमझी थी। शायद, जैसा दूसरे भाई ने किया था, उससे भी दाने नष्ट हो जाएंगे। तो उसने एक खेत तैयार करवाया; उसकी भूमि तैयार करवाई; उसकी मिट्टी बदलवाई; उसके कंकड़-पत्थर दूर किए; उस पर घास-पात ऊगता था, उसे फिंकवाया; उसमें पुराने पौधों की जड़ें थीं, उनको दूर किया; और जब भूमि तैयार हो गई तो उसने वह अनाज उसमें बो दिया। कोई तीन वर्ष बाद पिता वापस लौटा। बड़े लड़के ने तिजोड़ी खोल कर बता दी, वहां राख का ढेर था, और कुछ भी नहीं। पिता ने कहाः मैंने तुम्हें जीवित दाने दिए थे, जिनमें बड़ी संभावना थी, जो विकसित हो सकते थे और हजारों गुना हो सकते थे तीन वर्षों में। लेकिन तुमने उन सारे दानों को मिट्टी कर दिया। जो जीवित थे, वे मृत हो गए; जो संभावना थी, वह समाप्त हो गई; जो विकास हो सकता था, वह नहीं हुआ। राज्य देकर तुम्हें मैं क्या करूंगा? उस राज्य की भी यही दशा हो जाएगी। दूसरे युवक से पूछाः कहां हैं दाने? वह उस पथरीली जमीन पर ले गया, जहां उसने दाने फिंकवा दिए थे। वहां न तो कोई पौधे पैदा हुए थे, न कोई फसल आई थी। और न ही इन तीन वर्षों में वह कभी देखने गया था कि वहां क्या है। वहां तो घास-पात खड़ा हुआ था, वहां तो जंगल था। उसके पिता ने पूछाः कहां हैं दाने? उसने कहाः मैंने तो बो दिए थे। उसके बाद मुझे कोई भी पता नहीं। पिता ने पूछाः कैसी जमीन पर बोए थे? उसने कहा कि यह भी मुझे कुछ पता नहीं, इसी जमीन पर फिंकवा दिए थे। सोचा था, जब जमीन पर बिना बोए इतने पौधे पैदा होते रहते हैं, इतने वृक्ष, इतना घास-पात भगवान पैदा करता है, तो क्या मेरे दानों पर थोड़ी सी कृपा नहीं करेगा? इतनी बड़ी जमीन है, इतना सब पैदा होता है, तो मेरे दानों पर भगवान कृपा नहीं करेगा? लेकिन भगवान ने कोई कृपा नहीं की। वे दाने सड़ गए होंगे, दब गए होंगे, उनमें अंकुर भी नहीं आए होंगे। और हो सकता है अंकुर भी आए हों, तो उनकी जड़ें न पहुंच सकी होंगी जमीन तक, पत्थरों ने रोक ली होंगी। हो सकता है उनकी जड़ें भी पहुंच गई हों, तो वे घास-पात में कहां खो गए होंगे, किसको क्या पता था! न उनकी पहले से भूमि तैयार की गई थी और न पीछे उनकी कोई रक्षा की गई थी। उसके पिता ने कहाः राज्य तुझे भी देने में मैं असमर्थ हूं। क्योंकि जो बीज बोने के पहले यह भी नहीं देखता कि भूमि तैयार है या नहीं, वह राज्य के साथ क्या करेगा, यह भी मैं विचार कर सकता हूं। उसने अपने तीसरे लड़के को पूछा कि क्या हुआ? लड़का उसे खेत पर ले गया। जितने दाने पिता दे गया था, तीन वर्षों में हजारों गुना फसल हो गई थी। फेर बड़ा से बड़ा होता गया था। हर वर्ष जितना पैदा हुआ था, उसको उसने फिर बीज के रूप में प्रयोग किया था। पिता देख कर हैरान हो गया। एक लहलहाता खेत खड़ा हुआ था, जिसमें जिंदगी थी, हवाएं जिसकी सुगंध को दूर तक ले जा रही थीं। सूरज की रोशनी जिसके ऊपर चमक रही थी और प्रसन्न हो रही थी। उसके खेत को देख कर पिता का हृदय भी उतना ही हरा हो उठा और उसने कहाः राज्य को तू ही सम्हाल सकेगा। क्योंकि जो छोटे-छोटे बीजों को भी नहीं सम्हाल सकते, वे इतनी बड़ी विराट संभावनाओं को सम्हालने के मालिक नहीं हो सकते। वह राज्य उस छोटे लड़के को दे दिया गया। यह कहानी मैं क्यों कहता हूं? यह इसलिए मैं कहता हूं कि परमात्मा भी हम सबके पास बीज-रूप में बड़ी संभावनाएं देता है। वह परमात्मा भी हमें एक बड़ा राज्य देने के लिए उत्सुक है। उसकी भी बड़ी गहरी आकांक्षा है कि हमारे जीवन में हरियाली हो, जीवन हो, किरणें हों, खुशी हो, आनंद हो। और हम सबको वह बराबर संपत्ति दे देता है कि तुम इसे बढ़ाओ और विकसित करो। लेकिन हम भी तीन लड़कों की भांति सिद्ध होते हैं। हममें से कुछ लोग तो उस संपत्ति को तिजोड़ियों में बंद कर देते हैं, और मरते वक्त तक वह राख होकर समाप्त हो जाती है। हममें से कुछ उसे बोते हैं, लेकिन खेत की, भूमि की कोई फिकर नहीं करते। तब वह बोई तो जाती है, लेकिन कोई परिणाम नहीं आता। बहुत थोड़े से लोग हैं हमारे बीच, परमात्मा जो हमें देता है उसकी फसल को काटते हैं, उसे विकसित करते हैं। जन्म के साथ उन्हें जो मिलता है, मृत्यु के साथ उससे हजार गुना वे परमात्मा को वापस कर देते हैं। जो आदमी, जन्म के साथ जो कुछ लेकर आता है, मृत्यु के समय अगर हजार गुना वापस करने के लिए उसकी तैयारी नहीं है, तो वह समझ ले कि उसके जीवन में कोई सार्थकता का, कोई कृतार्थता का, कोई आनंद का विकास नहीं होगा। और वह समझ ले, उसने एक बड़े दायित्व से, एक बड़ी रिस्पांसिबिलिटी से पीठ मोड़ ली। और इसके परिणाम में उसे दुख झेलना होगा, पीड़ा और चिंता झेलनी होगी। हम सबको भी जीवन विकास करने को उपलब्ध होता है। लेकिन हम उसके साथ क्या करते हैं? तो आज की सुबह, जैसा कल रात मैंने कहाः मन को बनाना है एक दर्पण, मन को बनाना है एक मंदिर, मन को बनाना है कुछ ऐसा कि परमात्मा उसमें फलित हो सके, प्रतिफलित हो सके, दर्शन पा सकें हम उसके जो जीवन का सत्य है, उपलब्ध हो सकें उसे जो जीवन का सौंदर्य है, प्राण हमारे निनादित हो सकें उससे जो जीवन का संगीत है। उसके लिए पहली बात, जैसे किसान खेत की भूमि तैयार करता है, वैसे ही हमें अपने मन को भी तैयार करना होगा। हमें भी अपने मन की भूमि को तैयार करना होगा। और तैयारी में पहली बात जो करनी होगी वह यह कि मन से सारे कंकड़-पत्थर अलग कर देने होंगे। मन से घास-पात अलग कर देना होगा। मन से उखाड़ फेंकनी होंगी वे सब जड़ें जो न मालूम कितने दिनों से हमारे मन में घर किए हुए हैं, ताकि नई फसल हो सके। इसलिए पहला काम साधक के समक्ष मन की सफाई का है। निश्चित ही यह काम निगेटिव है, नकारात्मक है। कुछ उखाड़ फेंकना है, कुछ हटा देना है, कुछ जला देना है, कुछ मिटा देना है। निश्चित ही पहला काम नकारात्मक है, निषेधात्मक है। कोई मकान बनाता है, पुराने मकान को गिरा देना पड़ता है। तो जो आदमी भी एक नये मन को जन्म देने के लिए उत्सुक हुआ हो, उसे हिम्मत करनी होगी कि वह पुराने मन को मिटाने में, नष्ट करने में समर्थ हो सके, साहसी हो सके। जो आदमी पुराने मन को ही लेकर इस ख्याल में हो कि मैं परमात्मा तक पहुंच जाऊंगा, वह गलती में है। नया मन चाहिए–ताजा, जीवंत, जिससे सारी व्यर्थ की चीजें अलग कर दी गई हों–तब मन की भूमि तैयार होती है और उसमें फिर बीज बोए जा सकते हैं। छोटे-छोटे किसान भी इस बात को भलीभांति जानते हैं, लेकिन बड़े से बड़े मनुष्य भी इस बात को नहीं जानते हैं। मन में कौन सी चीजों की जड़ें हैं जो परमात्मा के बीजों को अंकुरित नहीं होने देती हैं और जिनको हटा देना जरूरी है? और हटाना इसलिए बहुत कठिन है, मालूम होगा, क्योंकि जो चीजें बाधा हैं परमात्मा के आने में, हमने उन्हीं को सहयोगी समझ रखा है। जो द्वार नहीं है, दीवाल है, उसी को हमने द्वार समझ रखा है। और जो मार्ग नहीं है, बाधा है, उसी को हमने मार्ग समझ रखा है। इसलिए हटाने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होगी। लेकिन वह कठिनाई आसान हो जाती है, अगर यह दिखाई पड़ जाए कि जिसे हमने सहयोग समझा था, वह विरोध था। और जिसे हमने सहारा समझा था, वह बंधन था। और जिसे हमने स्वतंत्रता समझा था, वह परतंत्रता थी। तो आज की सुबह उन थोड़ी सी कुछ बातों से आपको परिचित कराने की कोशिश करूंगा, जो हमारे मन में परमात्मा की तरफ सबसे बड़ी बाधाएं हैं। लेकिन हजारों वर्षों से किसी बुनियादी भूल के कारण हम उनको बाधाएं नहीं समझ कर सहयोगी समझते रहे हैं। जैसे, पहली बात, और उससे बड़ी कोई दूसरी बाधा नहीं है। पहली बात, ज्ञान सबसे बड़ी बाधा है। थोड़ा सुन कर हैरानी और कठिनाई होगी। जिसे हम ज्ञान जानते हैं, वह परमात्मा की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि जिस मनुष्य को यह ख्याल पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं, उसके जानने के द्वार बंद हो जाते हैं। उसकी आगे की खोज बंद हो जाती है। वह ठहर जाता है, रुक जाता है। उसके मन की यात्रा समाप्त हो जाती है। इसलिए पंडित कभी भी सत्य को नहीं जान पाते हैं। नहीं जान सकेंगे। आज तक किसी पंडित ने सत्य को नहीं जाना है और कभी नहीं जान सकेगा। यह ख्याल पैदा हो जाना कि मैं जानता हूं, इससे बड़ा और कोई अहंकार नहीं है। इससे बड़ी और कोई ईगो, इससे बड़ी और कोई अस्मिता, इससे बड़ा और कोई दंभ नहीं है। सुकरात बूढ़ा हो गया था। कुछ लोगों ने आकर सुकरात को कहाः एथेंस के लोग कहते हैं, सुकरात महाज्ञानी है, परम ज्ञानी है, क्या यह सच है? सुकरात से लोगों ने पूछा। सुकरात ने कहाः जब मैं छोटा था और जब मुझे जीवन का कोई अनुभव नहीं था, और जब मैंने जीवन को जाना नहीं था और जीवन से मैं परिचित न हुआ था, तब मुझे भी यह भ्रम था कि मैं जानता हूं, जब मैं छोटा था, बच्चा था। फिर मैं युवा हुआ, जीवन की बहुत ठोकरें मैंने खाईं, और जीवन के बहुत अंधेरे रास्तों पर मैं भटका, तब धीरे-धीरे मुझे पता चला कि मैं कितना कम जानता हूं! लेकिन तब भी मुझे यह ख्याल बना रहा कि थोड़ा-बहुत मैं जानता हूं। फिर मैं बूढ़ा हुआ, और अनुभव की वर्षा मेरे ऊपर हुई, और नये-नये अनजान, अपरिचित तथ्य मेरी आंखों में उभरे, और धीरे-धीरे मेरे ज्ञान का भवन गिरता गया। अब जब कि मैं मरने के करीब पहुंच गया हूं, मैं अत्यंत स्पष्ट रूप से कह देना चाहता हूंः मुझसे बड़ा अज्ञानी शायद ही कोई हो, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। और जाओ एथेंस के मेरे लोगों को कह देना कि वे ये भूल भरी बातें किसी को न बताएं। वे मुझे प्रेम करते हैं, यह तो ठीक है, लेकिन यह न कहें कि मैं परम ज्ञानी हूं। वे मित्र वापस गए, और उन्होंने एथेंस के समझदार लोगों को कहा कि तुम तो कहते हो कि सुकरात परम ज्ञानी है, लेकिन उसने खुद कहा है कि मैं तो परम अज्ञानी हूं। और उसने कहा है कि जाओ और उनसे कह देना, ऐसी झूठ बात वे न कहें। तो वे वृद्धजन हंसने लगे एथेंस के और उन्होंने कहाः जो अपने को परम अज्ञानी कहता है, उसी के लिए तो परम ज्ञान के द्वार खुल जाते हैं। इसीलिए तो हम कहते हैं कि सुकरात परम ज्ञानी है। जो इस तथ्य को जानने में समर्थ हो गया है कि मैं कुछ भी नहीं जानता, उसका हृदय एकदम सरल और शांत हो जाता है। उसके हृदय की सारी जटिलता विलीन हो जाती है। उसका अहंकार शून्य हो जाता है। वह मिट जाता है एक अर्थों में। उसके मन में तब कोई ख्याल और विचार नहीं रह जाते, तब कोई सिद्धांत और शास्त्र नहीं रह जाते, तब उसके भीतर कोई दावा नहीं रह जाता कि मैं जो कहता हूं वही सही है और दूसरे जो कहते हैं वह गलत है। तब वह कोई दावा नहीं करता। तब वह कोई घोषणा नहीं करता। तब वह कोई विवाद नहीं करता। तब वह कोई तर्क नहीं करता। बल्कि इस शांत अवस्था में कि मैं नहीं जानता हूं, उसका मन मौन हो जाता है। और उसी मौन में वह जान पाता है। स्टेट ऑफ नोइंग, जानने की दशा, और स्टेट ऑफ नॉट नोइंग, न जानने की दशा–दो अवस्थाएं हैं चित्त की। एक चित्त की दशा है, जब हमें लगता है कि हम जानते हैं। क्या जानते हैं लेकिन हम? क्या जानते हैं हम? आदमी क्या जानता है? कौन सा ज्ञान है आदमी के पास? विश्व की सत्ता के संबंध में कौन सी समझ है हमारी? दूर है विश्व की सत्ता, अपने ही संबंध में हम क्या जानते हैं? क्यों होता है जन्म? क्यों आ जाती है मृत्यु? क्या जानते हैं? क्यों चलती हैं श्वासें और क्यों बंद हो जाती हैं? क्या जानते हैं? क्यों हैं हम? हमारे होने की अर्थवत्ता और प्रयोजन क्या है? क्या जानते हैं? जो घर के द्वार पर पौधा लगा है, वृक्ष लगा है, वह भी क्यों है? आकाश में जो बादल उठते हैं, वर्षा करते हैं; सूरज ऊगता है, डूबता है; रात आती है, दिन आते हैं, क्यों हैं ये सब? क्या जानते हैं? क्या है हमारा जानना इस सारे विश्व के प्रति? इस विराट के प्रति? लेकिन अपने संबंध में भी जो मनुष्य कुछ नहीं जानता, वह भी यह ख्याल करता है कि मैं ईश्वर के संबंध में जानता हूं। अपने संबंध में भी जिसे कोई पता नहीं, वह भी यह दावा करता है कि मोक्ष के संबंध में मैं जानता हूं, स्वर्ग और नरक के संबंध में जानता हूं। और न केवल यह दावा करता है कि मैं जानता हूं, बल्कि यह भी दावा करता है कि दूसरे जो जानते हैं वे गलत हैं, जो मैं जानता हूं वही सही है। न केवल दावा करता है, बल्कि तलवारें निकाल कर निर्णय भी करता है कि अगर… हिंदू और मुसलमान, ईसाई और जैन, सिक्ख और पारसी क्या करते रहे हैं? न केवल हम सही हैं, बल्कि अगर कोई और कहता है कि तुम, और भिन्न बात कहता है, तो वह गलत है। न केवल वह गलत है, बल्कि इसका निपटारा हत्या से करने की कोशिश भी हम करते हैं। अदभुत है हमारा ज्ञान! कहना चाहिए अदभुत है हमारा अज्ञान! जीवन के बाबत कुछ भी ज्ञात नहीं है, लेकिन उस अज्ञात सत्य के संबंध में भी हम कल्पनाएं कर लेते हैं और कल्पनाओं पर लड़ते हैं। अनुमान कर लेते हैं, अनुमानों पर लड़ते हैं, हत्याएं करते हैं। सिद्धांतों और शास्त्रों के नाम पर कितने मनुष्यों की हत्या हुई है, कोई हिसाब है? धर्मों के नाम पर कितना खून हुआ है, कोई गणना है? मंदिर और मस्जिदों के नाम पर कितनी आगजनी हुई है, कोई हिसाब है? किसने की है यह? यह जानने वाला आदमी जिसको यह भ्रम है कि मैं जानता हूं! जिसे यह ख्याल है कि मैं जो जानता हूं वह सत्य है! खुद के प्राणों का कोई पता नहीं है और हम दूर के सत्यों के निर्णायक बन जाते हैं। यह जो जानने का भ्रम है, जब तक न छूट जाए, तब तक जानने के द्वार खुलते ही नहीं। ज्ञान के द्वार केवल उसी के लिए खुलते हैं, जो उस द्वार पर बिल्कुल अज्ञानी की भांति खड़ा हो जाता है। और जो कहता हैः मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं, मुझे तो कुछ भी पता नहीं है, मुझे तो जीवन के अ ब स का भी कोई अनुभव नहीं है, मैं तो निपट न जानने वाला हूं। कभी आपने सोचा, कभी आपको यह ख्याल आया है कि आप कुछ भी नहीं जानते हैं? अगर आया है ख्याल, तो आपके जीवन में धर्म की शुरुआत की संभावना है। और अगर आपको यह ख्याल है कि मैं जानता हूं, तो आपके द्वार बंद हो गए। आपकी भूमि तैयार नहीं है। और जानते क्या हैं? सिवाय शब्दों के और क्या जानते हैं? अगर गीता पढ़ ली है, अगर कुरान पढ़ लिया है, या बाइबिल पढ़ ली है, या और शास्त्र पढ़ लिए हैं, जो कि ढेर सारे हैं जमीन पर, जिनकी कोई कमी नहीं है। प्रति सप्ताह कोई पांच हजार ग्रंथ नये छप जाते हैं सारी जमीन पर। प्रति सप्ताह पांच हजार ग्रंथों का प्रकाशन होता है सारी दुनिया में। कोई कमी नहीं है। उन सबको आपने पढ़ लिया, उन सबके शब्द सीख लिए, सूत्र सीख लिए, उनको आप बोलने में समर्थ हो गए, बताने में समर्थ हो गए, तो क्या आप सोचते हैं, ज्ञान उपलब्ध हो गया? बात अगर ऐसी होती, तो सारी दुनिया ज्ञानी हो गई होती। लेकिन शास्त्र तो बढ़ते जाते हैं, साथ ही साथ अज्ञान भी बढ़ता जाता है। यह बड़ी हैरानी की, बड़ी दुविधा की बात मालूम होती है। आदमी का ज्ञान बढ़ता जाता है और हम देखते हैं कि आदमी के भीतर का अज्ञान भी साथ में बढ़ता जाता है। यह कैसे हो रहा है? यह जानने के भ्रम से हो रहा है। जानने का जितना भ्रम होता जाता है, उतना आदमी जटिल और कठोर होता जाता है। उतनी उसकी सरलता, उसकी सिंप्लीसिटी, उसकी ह्युमिलिटी, उसकी विनम्रता, सब खोती चली जाती है। पंडित से ज्यादा अहमन्य और कौन होता है? जिसे यह ख्याल पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं, उसके अहंकार का कोई अंत नहीं है। और इसीलिए तो दो पंडित मिलने को भी राजी नहीं हो पाते हैं। दो बड़े साधुओं को मिलाना कठिन है, दो पंडितों को मिलाना कठिन है। उनके अहंकार बड़े पैने हैं। एक-दूसरे के साथ खड़ा होना कठिन है। आज तक दुनिया को पंडितों के सिवाय और किसने लड़ाया है? किसने तोड़ा है? किसने आदमी आदमी के बीच दीवालें खड़ी की हैं? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? ये जानने वाले लोग! और बड़े मजे की बात है, ज्ञान क्या तोड़ने वाला हो सकता है? ज्ञान तो जोड़ेगा। अज्ञान तोड़ता है। तो ज्ञान के नाम से हम जिसका पोषण करते हैं, वह बहुत गहरा अज्ञान है। शास्त्र पढ़ लेने से, शब्द सीख लेने से, सिद्धांतों को स्मरण कर लेने से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, केवल अज्ञान ढंक जाता है। जैसे कोई अपने फोड़े को फूलों से ढांक ले, तो क्या फोड़ा समाप्त हो जाएगा? जैसे कोई अपने रुग्ण शरीर को सुंदर-सुंदर वस्त्रों से ढांक ले, तो क्या शरीर स्वस्थ हो जाएगा? नहीं, बल्कि उसके स्वस्थ होने की संभावनाएं थीं, वे भी समाप्त हो जाएंगी। क्योंकि न केवल दूसरों को धोखा पैदा होगा कि वह आदमी स्वस्थ है, दूसरों का धोखा देख कर उसे खुद भी धोखा पैदा होगा कि मैं स्वस्थ हूं। एक आदमी अपने फोड़े को छिपा ले, दूसरों को दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा कि उसका फोड़ा नहीं है। दूसरों को देख कर उसको खुद को यह भ्रम पैदा होना शुरू हो जाएगा कि शायद मेरा फोड़ा मिट गया, क्योंकि कोई उसकी चर्चा नहीं करता। और तब फोड़ा भीतर-भीतर बढ़ेगा और सारे प्राणों पर छा जाएगा। हम अपने अज्ञान को छिपा लेते हैं शब्दों और शास्त्रों की सीख से, सिखावन से। उससे अज्ञान मिटता नहीं, भीतर-भीतर सुलगता रहता है, फैलता रहता है। और इसीलिए तो हमारा ज्ञान एक तरफ होता है, हमारा जीवन दूसरी तरफ होता है। क्योंकि ज्ञान ऊपर का होता है, जीवन भीतर का होता है। इसलिए रोज झंझट खड़ी रहती है। रोज हम कहते हैं कि मैं जानता तो हूं कि ठीक क्या है, लेकिन जब करने का सवाल उठता है, तो वह कर लेता हूं जो गलत है। अगर कोई आदमी जानता है कि ठीक क्या है, तो क्या यह संभव है कि वह गलत कर सके? नहीं, यह असंभव है। जो ठीक को जानता है, वह गलत को नहीं कर सकता। लेकिन हम ठीक को जानते हैं और गलत को करते हैं। यह किस बात की सूचना और खबर है? यह इस बात की सूचना है कि हमारा जानना धोखे का है, झूठा है, शब्दों का है, सत्य का नहीं है। शब्दों को जान लेना बहुत आसान है। किताब पढ़ लेनी कोई कठिन बात है? किताब को याद कर लेना कोई कठिन बात है? स्मृति को भर लेना कोई कठिन बात है? छोटे-छोटे बच्चे सारी दुनिया में क्या कर रहे हैं? स्कूलों में क्या हो रहा है? बातें सिखाई जा रही हैं। एक बच्चा गणित की बातें याद कर लेता है, एक बच्चा भूगोल याद कर लेता है, एक दूसरा बच्चा गीता याद कर लेता है। इन तीनों में कोई फर्क है? लेकिन भूगोल को जानने वाले के हम पैर नहीं छूते और न उसे ज्ञानी कहते हैं। हम जानते हैं कि यह थोड़ी सी इनफार्मेशन इसने सीख ली भूगोल की, इसने इतिहास थोड़ा सा पढ़ लिया, तो ठीक है। लेकिन वही बच्चा गीता याद कर ले, तो ज्ञानी हो जाता है। और गीता याद करने में और इतिहास याद करने में कोई फर्क है? कोई भेद है? कोई अंतर है? कोई भी अंतर नहीं है। जो स्मृति इतिहास याद करती है, वही स्मृति गीता याद कर लेती है। लेकिन इतिहास वाले को हम ज्ञानी नहीं कहते, तो गीता जानने वाले को ज्ञानी कैसे कहने लगे? इतिहास भी एक किताब है, और गीता भी, और कुरान भी, और बाइबिल भी। किताबें पढ़ लेने से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, केवल स्मृति परिपक्व होती है, स्मृति में कुछ बातें बैठ जाती हैं। स्मृति बिल्कुल यांत्रिक है, मेकेनिकल है, उसमें कुछ भी डाल दो। अब ये टेप रिकार्ड कर रहे हैं, मैं बोल रहा हूं तो टेप कर रहे हैं। मैं अगर यहां भजन गाऊं, तो भजन टेप हो जाएगा; गालियां दूं, तो गालियां टेप हो जाएंगी; अच्छी बातें कहूं, तो वे टेप हो जाएंगी; बुरी बातें कहूं, तो वे टेप हो जाएंगी। टेप एक मशीन है, उसे इससे कोई फर्क नहीं कि मैं क्या कहता हूं, उसका काम है वह रिकार्ड कर लेगा। आदमी की स्मृति एक यंत्र है। आप इतिहास पढ़ें, तो इतिहास याद हो जाएगा; गीता पढ़ें, गीता याद हो जाएगी; भजन पढ़ें, भजन; फिल्म का गीत पढ़ें, तो फिल्म का गीत याद हो जाएगा। स्मृति ज्ञान नहीं है, स्मृति तो केवल संग्राहक यंत्र है। इस संग्राहक यंत्र को जो ज्ञान समझ लेता है, उसके रास्ते बंद हो गए, उसकी आगे की खोज बंद हो गई। और यह जो सारा ज्ञान है, यह फिर उसके ऊपर बोझ की भांति बैठ जाता है। उसके मस्तिष्क को बोझिल कर देता है, भारी कर देता है, विवादग्रस्त कर देता है, तर्क से भर देता है, उपद्रव से भर देता है। उसके भीतर की शांति चली जाती है, उसके भीतर की चैन चली जाती है। और उसके भीतर अज्ञान मौजूद बना रहता है। और उसे यह भी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं। बंगाल में एक बहुत बड़ा तर्कशास्त्री हुआ। कहते हैं बंगाल ने वैसा दूसरा बुद्धिमान आदमी पैदा नहीं किया। तर्क में बड़ी उसकी कुशलता थी। शास्त्रों में बड़ी उसकी गति थी। शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण शास्त्र हो, जो उसे कंठस्थ न हो। और शायद ही कोई ऐसी बात हो, जिसके पक्ष में वह खड़ा हो जाए, तो उसे हराना आसान हो। वह एक दिन सुबह-सुबह ही गांव के तेली की दुकान पर तेल खरीदने गया था। तो तेल खरीदा, तेली के पीछे ही कोल्हू चल रहा था, उसका बैल चल रहा था, तेल को पेर रहा था। कोई उसे चला नहीं रहा था, बैल अपने आप चल रहा था। तो उस तर्कशास्त्री पंडित ने पूछा उस तेली कोः बड़े आश्चर्य की बात है, यह बैल अपने आप चल रहा है! कोई इसे चलाता नहीं? उस तेली ने कहाः देखते नहीं हैं, गले में घंटी बांध दी है। जब तक घंटी बजती रहती है, मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। जब घंटी बंद हो जाती है, मैं उठ कर फिर हांक देता हूं। तर्कशास्त्री पंडित बोलाः बड़ी हैरानी की बात है, बैल बड़ा नासमझ है। खड़े होकर सिर को क्यों नहीं हिलाता कि घंटी बजती रहे? उस तेली ने कहाः महाराज! यह पंडित नहीं है, सीधा-सादा बैल है। इसे न शास्त्रों का पता है, न तर्कशास्त्र का कोई पता है। और आप कृपा करें और जल्दी यहां से चले जाएं। आपकी छाया भी खतरनाक हो सकती है। हो सकता है यह बैल भी खड़े होकर घंटी बजाने लगे। तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। मनुष्य के जीवन की सारी सरलता उसके पांडित्य और ज्ञान ने छीन ली। इसीलिए तो सारी दुनिया में आदमी खड़े होकर घंटी बजा रहा है। कोई कोई काम नहीं करना चाहता है। तो खड़े होकर, उसको पता हो गया, खड़े हो जाओ और घंटी बजाते रहो। घंटी बजती रहेगी, समझा जाएगा कि काम हो रहा है। जीवन की सब दिशाओं में हमारे ज्ञान ने हमें बड़ी हैरानी में डाल दिया। और यह ज्ञान बिल्कुल ज्ञान नहीं है। और यह ज्ञान बिल्कुल ही यांत्रिक शिक्षण है। इस यांत्रिक शिक्षण को ज्ञान समझ लेना, और इसको मान्यता देनी, इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। कुछ भी हम जानते नहीं हैं। और जो भी हमारी अटकलबाजियां हैं–और हमारी पूरी फिलासफी अटकलबाजियों के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जमीन का हमें पता नहीं है, आकाश के हमने हिसाब लगा लिए। भगवान के कितने चेहरे हैं, यह भी हमने पता लगा लिया। भगवान कहां हैं, कैसे रहते हैं, इसका भी हमने सब हिसाब लगा लिया। हमने भगवान की मूर्तियां और फोटो भी बना लिए। और सारी दुनिया पर हर आदमी स्वतंत्र है खोज कर लेने को, बना लेने को, कल्पना कर लेने को। सारी दुनिया में न मालूम कितनी कल्पनाएं खड़ी हो गई हैं। उन्हीं कल्पनाओं को हम धर्म समझ रहे हैं–उन्हीं अटकलबाजियों को, अंधेरे में टटोली गई बातों को। और फिर उनको सीख लेते हैं, और उनको पकड़ लेते हैं, और उनको पकड़ कर जड़ हो जाते हैं। सोच-विचार भी खो जाता है, चेतना का जागरण भी खो जाता है। एक बात इसलिए सबसे पहली जान लेनी जरूरी है, बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी, जिसे सचमुच ज्ञान की दुनिया में प्रवेश करना हो, उसे इस तथाकथित ज्ञान को, यह जो सो-काल्ड नॉलेज है, जो किताबों और शब्दों से मिलती है, इसे छोड़ देने की हिम्मत करनी होगी। यह पत्थर है, इसे निकाल फेंकना होगा। यह घास-पात है, जिसे खेत से अलग कर देना होगा। यह क्यों है ज्ञान झूठा? यह झूठा इसलिए है, क्योंकि यह उधार है, बारोड है। जो मेरा ज्ञान नहीं है, वह ज्ञान नहीं हो सकता। किसी और ने जाना हो, उसके लिए ज्ञान होगा। लेकिन उसके शब्द मेरे लिए ज्ञान नहीं हो सकते, वे मेरे लिए केवल स्मृति होंगे। उसके लिए होगी नॉलेज, मेरे लिए होगी मेमोरी। उसके लिए होगा ज्ञान, मेरे लिए होंगे शब्द, स्मृति। और मैं भ्रम में पड़ जाऊंगा। महावीर ने जाना होगा; बुद्ध ने जाना होगा; कृष्ण ने जाना होगा; क्राइस्ट ने जाना होगा। लेकिन उनके शब्द मेरे लिए ज्ञान नहीं बन सकते। आप जानते होंगे। लेकिन आपके शब्द मेरे लिए ज्ञान नहीं बन सकते। ज्ञान वैसा ही है जैसी मृत्यु है। आप मर जाएं, मुझे मरने का कोई अनुभव नहीं होता। मैं मर जाऊं, आपको मरने का कोई अनुभव नहीं होता। मृत्यु जैसे वैयक्तिक है, एकदम इंडिविजुअल है। एक आदमी मरता है, वही जानता है कि क्या होता है। वैसा ही ज्ञान भी वैयक्तिक है। एक आदमी जानता है, वही जानता है कि क्या है। और जब दूसरे से कहता है, तो दूसरे के पास पहुंचते हैं शब्द–थोथे और खाली। जैसे खाली कारतूस, जिसके पीछे कोई गोली नहीं है, ऐसे खाली शब्द पहुंच जाते हैं दूसरों के पास। और दूसरे उनको इकट्ठा कर लेते हैं। और इकट्ठा करने में रस लेने लगते हैं। और जितने खाली शब्द उनके पास बहुत हो जाते हैं, उतना उनको लगने लगता है कि मैं जानता हूं। शब्द बिल्कुल खाली हैं। मैंने सुना है, एक महाकवि समुद्र के किनारे था। सुबह जब वह समुद्र के किनारे पहुंचा, सूरज को उगते उसने देखा। बड़ी सुखद और शांत सुबह थी। और समुद्र की लहरें थीं, और उन लहरों पर तैरती आती हुई हवा थी–बड़ी शीतल, बड़ी आनंददायी, बड़ी आह्लाद से भरने वाली। उसके मन में हुआ–उसकी प्रेयसी दूर, हजारों मील दूर एक अस्पताल में बीमार पड़ी थी–उसके मन में हुआ कि ये सुंदर, सुखद हवाएं थोड़ी सी एक डिब्बे में बंद करके मैं अपनी प्रेयसी के पास पहुंचा दूं। उसने एक बड़ी खूबसूरत संदूक बनवाई, उसमें समुद्र की हवाओं को बंद किया और ताला लगाया और एक पत्र लिखा और पेटी को भिजवाया हवाई जहाज से अपनी पत्नी, अपनी प्रेयसी के पास। और पत्र में लिखा कि मैंने जानीं इतनी सुंदर हवाएं, कि मेरा मन हुआ कि तुम्हें भी भागीदार बनाऊं। और तुम हो दूर, और तुम हो बीमार, तुम्हें तो समुद्र तक लाना संभव नहीं है, इसलिए मैं समुद्र की हवाएं ही तुम्हारे पास पहुंचाए देता हूं। उसकी प्रेयसी ने बड़ी खुशी से, बड़ी आतुरता से वह पेटी खोली, लेकिन क्या पाया? वहां तो कुछ भी न था! वह तो पेटी खाली थी! समुद्र की हवाएं बंद करके नहीं भेजी जा सकतीं। यह तो हो सकता है कि हम समुद्र के पास चले जाएं और उसकी ताजी हवाओं को जानें; यह नहीं हो सकता कि उसकी ताजी हवाओं को पेटियों में बंद करके हमारे पास लाया जा सके। यह तो हो सकता है कि परमात्मा के किनारे हम पहुंच जाएं और उसको जान लें; यह नहीं हो सकता कि जो परमात्मा को जाने वह शब्दों में बंद करके खबरें हमारे पास भेज दे, और हम उन शब्दों को पकड़ लें और जान लें, यह नहीं हो सकता। ऐसा उधार ज्ञान पाने का कोई रास्ता नहीं है। परमात्मा निजी अनुभव है। एकदम निजी अनुभव है। एकदम वैयक्तिक। कोई लेन-देन नहीं हो सकता। कोई किसी को दे नहीं सकता उस अनुभव को। लेकिन शब्द हम दे सकते हैं। और शब्दों को देने से यह भ्रम पैदा हो जाता है, जिसके पास शब्द हो जाते हैं, उसे लगता है कि मैंने जाना। शब्द एक इल्युजन पैदा कर देते हैं, एक भ्रम पैदा कर देते हैं। शब्दों से ज्यादा मायावी और कुछ भी नहीं है। शब्दों से बड़ा जादू और कुछ भी नहीं है। शब्द हम सीख लेते हैं और सोचते हैं कि बस हो गई बात, हो गई बात, बात खतम हो गई। शब्दों पर बात खतम नहीं होती। और जो आदमी शब्दों पर रुक रहता है, उसकी जिंदगी जरूर व्यर्थ हो जाती है। शब्दों पर कोई बात खतम नहीं होती है। और जहां तक जीवन की असलियत का संबंध है, वहां हम सब भलीभांति इतने होशियार हैं कि वहां हम शब्दों से राजी नहीं होते। लेकिन जहां सत्य, अनुभूतियों और परमात्मा का संबंध है, वहां हम शब्दों से राजी हो जाते हैं। बड़ी हैरानी की बात है! अगर कोई आपसे धन की बातें करे, तो आप कहेंगेः हो चुकी बातचीत, धन कहां है? अगर कोई आपसे महलों की बातचीत करे, तो आप कहेंगेः हो चुकी बातचीत, लेकिन महल कहां है? बातचीत से क्या होगा? जहां तक पदार्थ, जहां तक संसार का संबंध है, हम सब बहुत होशियार हैं, और हम शब्दों से धोखे में नहीं आते हैं। लेकिन जहां तक परमात्मा का संबंध है, हम बड़े अजीब लोग हैं, हम एकदम शब्दों के धोखे में आ जाते हैं। और हम कहीं नहीं पूछते कि ठीक है, यह तो शब्द हो गया, यह गीता तो ठीक, कुरान तो ठीक, लेकिन परमात्मा कहां है? एक सम्राट के द्वार पर एक कवि आया, और उस कवि ने उस सम्राट की प्रशंसा में बहुत गीत कहे। बड़े मधुर थे वे गीत; और बड़े मीठे थे शब्द; और बड़ी स्तुति थी उनमें। सम्राट हुआ बहुत प्रसन्न। और उसने सारे गीत सुन कर कहा अपने वजीर कोः कल दस हजार स्वर्णमुद्राएं भेंट कर देना इस कवि को, अदभुत है यह कवि। और कवि से कहाः बहुत हुआ आनंद, बहुत हुआ आनंद, कल आना और दस हजार स्वर्णमुद्राएं भेंट कर दूंगा। कवि तो आसमान में उड़ गया। वह तो नाचता हुआ घर लौटा। दस स्वर्णमुद्राएं मिल जातीं तो भी खुश होता। दस हजार स्वर्णमुद्राएं! रात सो नहीं सका, रात भर सपने उठते रहे। रात भर बुनता रहा, हिसाब करता रहा–क्या करूंगा, क्या नहीं करूंगा। दस हजार स्वर्णमुद्राओं की तो कल्पना भी न थी। मुंह अंधेरे ही, सूरज भी नहीं निकलता था, वह राजा के द्वार पर पहुंच गया। द्वार खुले, तो वह बाहर खड़ा हुआ था। राजा ने उससे पूछाः कैसे आए? वह थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहाः आप भूल गए क्या? कल आपने कहा था, दस हजार स्वर्णमुद्राएं देंगे। राजा हंसने लगा, उसने कहाः बातों-बातों में तुमने मुझे प्रसन्न किया था, बातों-बातों में मैंने भी तुम्हें प्रसन्न किया। इसमें लेने-देने का कहां संबंध है? तुमने कुछ अच्छी बातें कही थीं, मैं खुश हुआ। मैंने एक अच्छी बात कही, ताकि तुम खुश हो जाओ। इसमें रुपये कहां आते हैं? इसमें रुपयों का क्या वास्ता है? तुमने भी कविता कही, हमने भी कविता कही। हम जरा शब्दों की कविता नहीं कर सकते, हम रुपयों की कविता करते हैं। तो हमने भी एक कविता कही। वह भी एक पोएट्री थी। तुम भी कवि हो, हम भी कवि हैं। तुम शब्दों के कवि हो, हम रुपयों और धन के कवि हैं। तो बात खतम हो गई, उसके आगे लेने-देने का क्या संबंध है? लेकिन कवि को यह तो दिखाई पड़ गया कि रुपयों की बात कविता हो तो उसको भी धक्का लगा। लेकिन उसको खुद शायद ही यह कभी दिखाई पड़ा होगा कि उसकी कविताएं भी कोरी और थोथी शब्दों से ज्यादा नहीं हैं, उनमें भी कुछ नहीं है। हम शब्दों के व्यामोह में पड़ते हैं और उसे ज्ञान समझ लेते हैं। यह ज्ञान नहीं है। यह पहली शर्त है, इस ज्ञान को थोथा और भ्रामक समझना जरूरी है जो हमने दूसरों से सीख लिया है। और हमने सब तो दूसरों से सीखा हुआ है! अगर मैं पूछूंः ईश्वर है? और आप कहेंः है। तो क्या आप सोचते हैं, आपने ईश्वर को जाना? सुना है, सीखा है। लोग कहते हैं कि है, आप भी कहते हैं कि है। हिंदू से पूछें, तो वह कुछ और कहता है। मुसलमान से पूछें, वह कुछ और कहता है। बौद्ध से पूछें, वह कुछ और कहता है। जैन से पूछें, वह कुछ और कहता है। क्या वे सब जानते हैं? नहीं, जो उन्होंने सुना है, वह कहते हैं। क्योंकि उन्होंने भिन्न बात सुनी है, इसलिए वे भिन्न बात कहते हैं। आपने भिन्न बात सुनी है, आप भिन्न बात कहते हैं। रूस में चले जाएं, वहां के लड़कों से पूछेंः ईश्वर है? वे कहते हैंः नहीं है। क्या वे जानते हैं कि ईश्वर नहीं है? नहीं, उनकी हुकूमत उनको यही समझा रही है कि नहीं है। वे यही सुनते हैं, यही कहते हैं। रूस के बच्चे कहते हैंः ईश्वर नहीं है। हिंदुस्तान के बच्चे कहते हैंः ईश्वर है। हिंदू का बच्चा कहता हैः पुनर्जन्म है। ईसाई का बच्चा कहता हैः पुनर्जन्म नहीं है। यह ज्ञान है या कि शिक्षा है? सिखाई गई बातें हैं। जो बातें बचपन से दोहराई जा रही हैं, वे हम सीख लेते हैं। उन्हीं के आधार पर हम अपने ज्ञान को खड़ा करते चले जाते हैं। यह सारा ज्ञान का भवन झूठा है। इसके आधार झूठे हैं। जो चीज सिखाई जाती है, वह झूठी होती है। जो बात जानी जाती है, वह और होती है। जानना और सीखने में फर्क है। विज्ञान सिखाया जा सकता है, धर्म सिखाया नहीं जा सकता। इसलिए विज्ञान के कालेज हो सकते हैं, युनिवर्सिटी हो सकती है; धर्म का कोई कालेज, कोई युनिवर्सिटी नहीं हो सकती। विज्ञान सिखाया जा सकता है, क्योंकि विज्ञान बाहर के जगत से संबंधित है। जो बाहर के जगत से संबंधित है, वह सिखाया जा सकता है। वह हमसे बाहर है, हम सब उसे देख सकते हैं, हम सब उस पर निरीक्षण कर सकते हैं, हम सब उस पर प्रयोग कर सकते हैं। हम सबके लिए वह कॉमन ऑब्जेक्ट है। हम सबके लिए सबके बीच सामूहिक पदार्थ है। लेकिन धर्म सिखाया नहीं जा सकता, क्योंकि वह आंतरिक है। और सबके समक्ष सामने खड़ा नहीं किया जा सकता, सामूहिक रूप से प्रयोग नहीं हो सकता, सामूहिक परीक्षण नहीं हो सकता, सामूहिक निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन नहीं हो सकता। धर्म है नितांत गूढ़ और आंतरिक। उसे कोई स्वयं तो जान सकता है, लेकिन कोई दूसरा इशारा नहीं कर सकता कि यह है। परमात्मा की तरफ अंगुली नहीं उठाई जा सकती, पदार्थ की तरफ अंगुली उठाई जा सकती है। परमात्मा को पकड़ कर मौजूद नहीं किया जा सकता, पदार्थ को पकड़ कर मौजूद किया जा सकता है। इसलिए परमात्मा को सिखाया नहीं जा सकता, जाना जा सकता है। और बड़ा मजा यह है कि जो लोग परमात्मा को सीख लेते हैं, वे जानने से वंचित रह जाते हैं। क्योंकि सिखावन होगी उधार, दूसरों की। और उसको ही अगर उन्होंने पकड़ लिया, तो वे उसको ही सत्य मान कर रुक जाएंगे। और तब उस ज्ञान तक कैसे पहुंचेंगे जो उनके भीतर है और कभी बाहर से नहीं आता है? इसलिए आज की सुबह पहली जो बुनियादी बात आपसे मैं कहना चाहता हूं, वह यहः आपने सुना होगा, दूसरे लोग ज्ञान सिखाते हैं, मैं अज्ञान सिखाता हूं। ज्ञान छोड़ना चाहिए। स्टेट ऑफ नॉट नोइंग जो है, अज्ञान की जो सरल अवस्था है, वह बड़ी अदभुत है, बड़ी क्रांतिकारी है। एक अनाथालय में मैं गया था। वहां के बच्चों को वे धर्म की शिक्षा देते हैं। तो मैंने उनसे पूछाः क्या सिखाते होंगे? क्योंकि मैं तो समझ ही नहीं पाता कि धर्म सिखाया जा सकता है। असंभव है यह बात। सिखाया जा सकता होता, तो पांच हजार साल हो गए, अब तक आदमी धार्मिक हो गया होता। और हमने सब बातें तो सिखा दी हैं। एक-एक आदमी जानता है कि ईश्वर है, आत्मा है, मोक्ष है, फलां है, ढिकां है, कर्म है, यह है, वह है, हर आदमी जानता है। लेकिन कोई आदमी धार्मिक नहीं हो गया इस वजह से। बल्कि यह जो इस तरह की बातें जानने वाले लोग हैं, बड़े खतरनाक हैं। इस तरह के जानने वाले लोग हमेशा उपद्रव में ले जाते हैं, अधर्म में ले जाते हैं। जो आदमी रोज गीता पढ़ता है, कल वह मस्जिद जलाने की सलाह दे सकता है। जो आदमी रोज मस्जिद में नमाज पढ़ता है, वह कल मंदिर में आग लगाने की सलाह दे सकता है। बड़े खतरनाक लोग हैं। इनका यह जो ज्ञान है, यह ज्ञान कोई प्रेम नहीं लाता दुनिया में। यह ज्ञान कोई दुनिया में शांति नहीं लाता; युद्ध लाता है, हिंसा लाता है। तो यह ज्ञान तो धार्मिक बनाता नहीं किसी को, फिर भी आप क्या सिखाते हैं? तो उन्होंने कहाः आप आएं और बच्चों से पूछ लें। मैं गया। उन्होंने खुद ही पूछाः ईश्वर है? उन सारे बच्चों ने हाथ उठा दिए। उनको सिखाया था। उनको परीक्षा देनी थी। उनको बताया गया था, जब हम पूछें–ईश्वर है? तो तुम कहना–हां, ईश्वर है। उन्होंने हाथ उठा दिए। वे हाथ बिल्कुल झूठे हैं। उन बच्चों को कोई भी पता नहीं कि ईश्वर है या नहीं है। लेकिन वे हाथ उठा रहे हैं। बुनियाद रखी जा रही है असत्य की। इसी बुनियाद पर उनके जीवन भर का भवन खड़ा हो जाएगा। यह बुनियाद झूठी है। इन बच्चों को कोई भी पता नहीं। और इतना बड़ा असत्य जिन बच्चों को हम सिखा रहे हैं, हम अगर आशा करें कि जीवन में वे सत्यवादी हो जाएंगे, तो निहायत नासमझी की बात है। इतना बड़ा असत्य हम उन बच्चों को सिखा रहे हैं! जिनको कोई पता नहीं, उनको हम कह रहे हैं, ईश्वर है। और जो कह रहा है, बड़ा मजा यह है, उसे भी कोई पता नहीं, उसे भी किसी ने सिखाया है। मैंने उनके अध्यापक के कान में पूछाः तुम्हें पता है ईश्वर के होने का? वे कहे कि मुझे तो नहीं, लेकिन हां, है तो जरूर, क्योंकि सब कहते हैं। इन बच्चों को भी सिखा दिया। आत्मा है? उन बच्चों ने कहाः है। कहां है? उन्होंने अपने हृदय पर हाथ रख दिए, यहां। मैंने एक छोटे बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? उसने कहाः यह तो हमें बताया नहीं गया। जो बताया गया, वह हम बता सकते हैं। जो नहीं बताया गया, वह हम कैसे बता सकते हैं? हृदय कहां है, यह उसे पता नहीं; लेकिन आत्मा कहां है, तो वह कहता है, यहां है। यह हाथ कितना झूठा है! लेकिन यह सीख लिया जाएगा, और जिंदगी भर, जब भी प्रश्न उठेगा और जिज्ञासा पैदा होगी और इंक्वायरी पैदा होगी कि आत्मा कहां है, यह झूठा हाथ मशीन की तरह यहां चला जाएगा और कहेगा, यहां। यह गेस्चर बिल्कुल झूठा है। यह हाथ का उठना बिल्कुल झूठा है। हम सबके हाथ भी उठेंगे, अगर मैं आपसे पूछूंः आत्मा कहां है? तो आप कहेंगेः यहां। यह हाथ भी वही हाथ है, जो बच्चे का उठा कर लगा दिया गया था। बूढ़े हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। बचपन में सीखी गई आदतें काम करती रहती हैं। आपसे पूछेंः आत्मा कहां है? कहेंगेः यहां। आपने जाना है यहां क्या है? कोई पता नहीं उसका कि यहां क्या है, लेकिन हाथ उठता है और चला जाता है। ये जो सारी तरकीबें हैं, ये शिक्षाएं नहीं हैं, बल्कि इस अहसास के कारण कि मुझे पता है, आत्मा यहां है, कभी आप आत्मा को खोजते भी नहीं। क्योंकि जिसे यह ख्याल पैदा हो गया कि मुझे मालूम है, वह खोजेगा क्यों? हमारी खोज बंद हो गई है सारी दुनिया में धर्म की, इस कारण से नहीं कि नास्तिक बढ़ गए हैं, इस कारण से नहीं कि विज्ञान बढ़ गया है, इस कारण से नहीं कि लोग बुरे हो गए हैं, कलियुग आ गया है। ये सब निहायत बेवकूफी की बातें हैं। बल्कि इस कारण कि धार्मिक लोगों ने शिक्षा दे-दे कर हमारे मन इतने ज्ञान से भर दिए हैं कि हमारी खोज बंद हो गई, हमारी इंक्वायरी बंद हो गई। इसका जिम्मा नास्तिकों पर नहीं है, न भौतिकवादियों पर है। इसका जिम्मा धार्मिक शिक्षकों पर है, रिलीजस टीचर्स पर है। जो सिखाए जा रहे हैं कि यह है, यह है, यह है। और जो यह भी सिखाते हैं कि संदेह मत करना, नहीं तो भटक जाओगे; विश्वास कर लेना, हम जो कहते हैं, उस पर। ये जो सिखा रहे हैं लोग, ये जो ज्ञान देने वाले लोग हैं, ये हैं शत्रु मनुष्य-जाति के। इन्होंने हमारे हृदय को, हमारे मस्तिष्क को ऐसे थोथे शब्दों से भर दिया है जिनकी कोई प्रतीति हमें नहीं है। और तब हम एकदम उधार आदमी हो गए हैं, बारोड। अपनी कोई आत्मा नहीं है जिनके पास। होगी कैसे? जिसके पास अपना कोई ज्ञान नहीं है, उसके पास अपनी कोई आत्मा, अपना कोई बल होता है? जिसका सब ज्ञान दूसरों से आता हो, वह भीतर एकदम सत्वहीन हो जाता है, इंपोटेंट हो जाता है। उसके भीतर कोई बल नहीं रह जाता। वह कुछ भी नहीं जानता है। उसकी सारी दीवालें ज्ञान की खींची जा सकती हैं, और उसको पता चलेगा कि यह तो मैं नहीं जानता हूं। धोखा अपने को दिया जा सकता है ऐसे ज्ञान से। लेकिन ऐसे ज्ञान से न कभी कोई मुक्त होता है, न कभी कोई सत्य को जानता है। तो मैंने कहाः इन बच्चों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार, बड़ा अनाचार कर रहे हो। आज तक अधिक मां-बाप और शिक्षकों ने यह किया है। बच्चों के धार्मिक होने की सारी संभावनाएं बंद कर दी हैं। इसके पहले कि उनकी जिज्ञासा पैदा हो, हम उनको शब्द पकड़ा देते हैं, वे शब्द से तृप्त हो जाते हैं। वह तृप्ति झूठी है, और उस तृप्ति की वजह से फिर उनकी खोज बंद हो जाती है, उनकी प्यास समाप्त हो जाती है। क्या करें? शब्दों को हटा दें अपने मन से। आपके भीतर एक लपटती हुई प्यास पैदा होगी जानने की। ज्ञान को हटा दें और आपका अज्ञान आपके प्राणों के भीतर एक प्यास बन जाएगा कि मैं जानूं! क्या है, मैं जानूं! ज्ञान का भ्रम टूट जाए, तो ज्ञान की यात्रा शुरू होती है। और जो ज्ञान के खूंटों से बंधे रहते हैं, उनकी कभी यात्रा शुरू नहीं होती। तो पहला निषेधात्मक काम हैः ज्ञान से छुटकारा। यह बड़ा कठिन है। क्योंकि अज्ञान से कोई कहे छूट जाओ, तो हमको खुशी होती है। क्योंकि अज्ञान से छूटने में हमारे अहंकार की तृप्ति होगी। और मैं कहता हूं, ज्ञान से छूट जाओ, तो बड़ी घबड़ाहट होती है। क्योंकि ज्ञान तो हमारा अहंकार है। अहंकार से छूटने में बड़ी बेचैनी होती है। कि अगर मैंने ज्ञान छोड़ दिया, मैं हो गया अज्ञानी। कल चार लोग कहते थेः पंडितजी, आप जानते हैं। और मैं खुद ही कहूं कि मैं कुछ नहीं जानता, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। कल चार लोग पैर छूते थे, कहते थेः तपस्वी हैं, ज्ञानी हैं। वही कहेंगे कि अरे, ये तो खुद ही नहीं जानते। सारी कठिनाई वहां अहंकार की है। तो ज्ञान छोड़ने वाले को साहसी होना पड़ेगा, इस दंभ को छोड़ने का। और एक क्षण में यह हो सकता है, इसके लिए कोई पहाड़ नहीं खोदने पड़ेंगे। यह बोध आ जाए कि सच मैं जो जानता हूं, उसमें मेरा कितना है जो मैंने जाना है? इसकी थोड़ी सी परख, और सारा भवन गिर जाएगा, जैसे ताश के पत्तों का भवन हवा के एक झोंके में गिर जाए। उससे ज्यादा श्रम नहीं पड़ेगा। क्योंकि भवन के नीचे कोई बुनियाद नहीं है, कोई आधार नहीं है, अधर में लटका हुआ भवन है। तरकीब है मन को कंडीशन करने की, जो हजारों साल से धर्मगुरु, राजनीतिज्ञ उपयोग कर रहे हैं और आदमी को गुलाम बनाए हुए हैं। पावलफ हुआ रूस में एक वैज्ञानिक। उसने जिंदगी भर कुत्तों के ऊपर कुछ प्रयोग किए। एक कुत्ते को वह रोज रोटी देता। रोटी सामने आती, तो कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती। स्वाभाविक है। रोटी सामने हो, कुत्ता भूखा हो, लार टपकेगी। लेकिन वह साथ ही साथ जब रोटी खिलाता, तो साथ में एक घंटी भी बजाता जाता। पंद्रह दिन बाद, रोटी तो नहीं दी उसने, सिर्फ घंटी बजाई, कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगी। अब घंटी बजने से और कुत्ते के मुंह से लार टपकने का कोई प्राकृतिक संबंध नहीं है। रोटी के साथ तो प्राकृतिक संबंध है, लेकिन घंटी के साथ क्या संबंध है? लेकिन पंद्रह दिन में संबंध स्थापित हो गया। एक फाल्स रिलेशन, एक झूठा संबंध पैदा हो गया। रोटी दी जाती थी, साथ में घंटी बजती थी, दोनों के बीच संयोग हो गया कुत्ते के मन में। रोटी और घंटी साथ-साथ ख्याल में आ गए। अब रोटी मिलती थी तो घंटी बजती थी, तो घंटी बजेगी तो रोटी मिलेगी, ऐसा मन में संबंध हो गया। पंद्रह दिन बाद घंटी बजती है, कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगी। घंटी के साथ रोटी का ख्याल संयुक्त हो गया। इसको पावलफ ने कहा… यह बड़ी क्रांतिकारी खोज थी। इसके इंप्लिकेशंस, इसके अंतर्गर्भित अर्थ बहुत गहरे हैं। एक छोटे से बच्चे को ले जाते हैं आप एक मंदिर में और कहते हैंः ये भगवान हैं। बच्चे को कोई भगवान वहां दिखाई नहीं पड़ता। अगर बच्चे को दिखाई पड़ता होता, तो आपको बताने की कोई जरूरत न पड़ती। आप हाथ जोड़ते हैं और बच्चे से कहते हैंः हाथ जोड़ो। अगर बच्चे को भगवान दिखाई पड़ रहे होते, तो वह खुद ही हाथ जोड़ लेता। बच्चे को तो दिख रहा है कि पत्थर की एक मूर्ति रखी है। बच्चे को तो सचाई दिख रही होगी, आपको भला भगवान दिख रहे हों। बच्चा आपकी तरह अभी बेईमान नहीं हो गया है। बच्चा आपकी तरह चालाक भी नहीं है, बच्चा अभी कंडीशंड भी नहीं है, अभी उसके दिमाग को कुछ पता नहीं है। सीधा-साफ उसको तो दिखाई पड़ रहा होगा कि एक पत्थर की मूर्ति रखी है। और अगर आप बाधा न दें तो हो सकता है पत्थर की मूर्ति उठा कर घर ले आए, खेल-खिलौना बना ले। बच्चे को कोई कठिनाई नहीं होगी, सीधी-सीधी बात है। लेकिन आप कहते हैं कि भगवान हैं। पिता को बच्चा मानता है बड़ा, आदरणीय। वे जो कहते हैं, जरूर ठीक कहते होंगे। जो जानते हैं, जरूर ठीक जानते होंगे। क्योंकि उनकी बात पर शक करने का मतलब पिट जाना, परेशान होना है। तो ठीक है। ताकतवर हैं, वे ठीक ही कहते होंगे। फिर जब उनको हाथ जोड़ते देखता है, और गांव के लोगों को हाथ जोड़ते देखता है, वह भी हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। यह हाथ जोड़ना उसके चित्त में बिल्कुल झूठी घटना है। इसका उसके प्राणों से कोई संबंध नहीं है। इसका उसके अनुभव से कोई नाता नहीं है। फिर रोज-रोज यह क्रिया चलती है। पच्चीस वर्ष का वही जवान उस मंदिर के सामने से निकलता है तो उसके हाथ उठ जाते हैं। यह वही घटना है, जो कुत्ते के मुंह से लार टपक गई घंटी बजते देख कर। इसमें कोई फर्क नहीं है, इसमें कोई भेद नहीं है। यह कंडीशनिंग है। ये चित्त को बांधने की तरकीबें हैं, और कुछ भी नहीं। इसमें न भगवान के प्रति हाथ उठ रहे हैं, न कोई भगवान से संबंध है इस बात का। कोई नाता नहीं है इससे भगवान का, इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो सिर्फ पच्चीस वर्ष की शिक्षा, संयोग, अब वह भयभीत हो गया। मेरे एक मित्र हैं, मुझसे बात करते थे, उनको बात समझ में आ गई। तो जिस मंदिर के सामने से निकल कर वे रोज नमस्कार करते थे, उनको बात समझ में आ गई होगी, तो वे एक दिन बिना नमस्कार किए निकल गए। सांझ को मेरे पास आए और बोलेः बड़ी मुश्किल हो गई। बीस-पच्चीस कदम तो मैं हिम्मत करके चला गया कि न करूं नमस्कार, लेकिन बीस-पच्चीस कदम के बाद मुझे एकदम पसीना आने लगा और हृदय घबड़ाने लगा–कि आज तीस वर्षों से निरंतर नमस्कार करता था, कहीं भगवान नाराज न हो जाएं! और मैं भी कहां के चक्कर में पड़ गया! किस बात में पड़ गया! और फिर मैंने कहा कि कौन देखता है! और आपको पता भी क्या चलेगा कि मैंने किया कि नहीं! मैं वापस लौटा, मैंने धीरे से नमस्कार किया, और फिर दफ्तर चला गया–निश्चिंत, शांत होकर। मैंने उनसे कहाः मैंने कभी कहा नहीं कि तुम छोड़ देना नमस्कार करना। मैंने तो यह कहा कि तुम समझ लेना कि यह नमस्कार करना है क्या। और अगर यह ख्याल में आ जाएगा, तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि यह कब छूट गया है। यह इस भांति हमारा जो चित्त है, उसको हम समझ रहे हैं कि यह ज्ञान और धर्म को जान लिए वाला चित्त है। इसने कुछ भी नहीं जाना हुआ है। इसी भांति हमने शब्द सीख लिए, शास्त्र सीख लिए, मंदिर सीख लिए, प्रार्थनाएं, पूजाएं सीख लीं–सारी झूठी। इनका हमारे प्राणों के अंतस से कोई संबंध नहीं है। इसका हमारी आत्मा से कोई संबंध नहीं है। और इसीलिए तो हम झूठे आदमी की तरह जमीन पर खड़े हुए हैं। तो पहली बातः शब्द से, शास्त्र से, ज्ञान से, जो सिखाया गया है उससे, उसके प्रति यह बोध जग जाना चाहिए, वह ज्ञान नहीं है, वह सत्य नहीं है, वह केवल शिक्षा है–उधार, बासी, दूसरों की। उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। और अगर यह स्मरण आ जाए कि उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है, तो दीवालें गिर जाएंगी, वह भवन गिर जाएगा। और तब नये भवन को खड़े करने की जगह खाली हो जाएगी। मैं नहीं जानता हूं, यह जानना पहला सूत्र है। मैं नहीं जानता हूं सत्य को, स्वयं को, सर्व को, कुछ भी नहीं जानता हूं। टोटल इग्नोरेंस है, पूरा अज्ञान है, कुछ भी नहीं जानता हूं, यह बोध पहली सीढ़ी है। फिर इसके बाद कुछ हो सकता है इस बोध के ऊपर। क्योंकि सत्य है यह बोध, निश्चित तथ्य है यह, यह हमारी वास्तविक दशा है, तो यह आधार बन सकता है, फिर इसके ऊपर कुछ भवन खड़ा किया जा सकता है। फिर हम पूछ सकते हैं कि मैं कैसे जानूं? फिर हम पूछ सकते हैं कि मैं क्या करूं कि जानना हो सके? अभी तो नहीं जानता हूं। वेजनर एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ। उसके पास एक युवा संगीतज्ञ आया और वेजनर से बोलाः प्रभावित हुआ हूं तुम्हारी कला से मैं, और तुम्हारे निकट रह कर संगीत सीखना चाहता हूं। वेजनर ने कहाः मित्र, पहले तो कहीं और संगीत नहीं सीखा है? उसने कहाः मैंने सीखा है, पांच वर्षों से अभ्यास करता हूं, इसलिए आपको कठिनाई भी कम होगी मुझे सिखाने में। वेजनर ने कहाः तुम गलती में हो, कठिनाई ज्यादा हो गई। तुमने जो सीखा है, पहले उसे भुलाना पड़ेगा। इसलिए फीस दुगुनी होगी। जो लोग बिल्कुल अनसीखे आते हैं, उनसे जितनी फीस लेता हूं, उससे दुगुनी तुमसे लूंगा। क्योंकि पहली तो मुसीबत यह हो गई कि तुमने जो सीखा है, वह भुलाना होगा, वह अनलर्न करना होगा, उसे साफ करना होगा। क्योंकि इधर हम जो संगीत सिखाते हैं, वह सिखाने वाली चीज नहीं है।  ओशो सुविचार 
आइये इस परम सत्य और सत्ता के बारे में जाने ।कहीं मौका निकल न जाये
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Dr.R.R.MISHRA 9898630756

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