Friday, January 29, 2021

तनाव मुक्त जीवन




आज मानव जीवन में सबसे अधिक तनाव है। इससे आज लगभग सभी पीड़ित हैं। और इसमें से निकलने के लिए सभी कोशिश कर रहे हैं। और जितना हम कोशिश करते हैं उतना ही तनाव बढ़ता जाता है। और हम इसके लिए चिकित्सकों के पास जाते हैं। और आधुनिक विज्ञान के पास इसका पूरा पैकेज है पूरा जाल है । और उस जाल में हम ऐसे फंस जाते हैं जैसे मछली जाल में फंस जाती है। कभी आपने देखा हो तो जाल में मछली पकड़ने के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती उल्टा मछली ही जाल को इस तरह पकड़ लेती है और वह तब तक नहीं छोड़ती जब तक वह बाहर नहीं आ जाती । ठीक कुछ इसी प्रकार से हमारे जीवन में तनाव जैसी बीमारी है जिसमें हम खुद ही फंस जाते हैं। और जब हम दवाओं से नहीं उबर पाते फिर इससे छुटकारा पाने के लिए हम धार्मिक परंपराओं में भटकने लगते हैं। और इनका एक अलग जाल है । इनकी भी एक पद्धति है। आधुनिक चिकित्सक कम से कम कुछ समय की खान पान रहने शहन की कमी का कारण दर्शातें हैं। तथाकथित धार्मिक परंपराओं में आपके कई जन्मों का कारण दर्शातें है। अब यह ऐसा महाजाल है कि हमें इससे छुटकारा दिलाने के बजाय ऐसा भ्रमित करते हैं। कि कम से कम हमारा यह जन्म कम पड़ जायेगा। जाल और महाजाल में हम इस तरह फंस जाते हैं कि समझ में आना मुश्किल है। कि हम इसमें से निकलने की जगह और फंस जाते हैं। कभी आपने देखा है कि किसी बीमारी का इलाज करते करते हम कितनी सारी बीमारियो का शिकार हो जाते हैं। और आधुनिक विज्ञान के पास इतनी सारी गाइडलाइन है कि हमें इनमें से निकल पाना मुश्किल है। आइये अब इससे पहले ज्यादा फंस जाये उससे पहले हम उसकी जड़ पर एक बार देखने की कोशिश करते हैं। मानवजाति की रचना परमात्मा ने प्रकृति ने अपने संसाधनों से किया है। जैसे हम एक मकान बनाते हैं यदि मकान मिट्टी से बनाया जाये फिर उसमें एक किस्म की सिर्फ मिट्टी का ही उपयोग किया गया है। और यदि कहीं मरम्मत की जरूरत पड़ती है फिर हम उसी प्रकार की मिट्टी से ही करते हैं । क्या उसकी मरम्मत किसी और खनिज से हो सकती है ? यदि मकान ईंट रेती, सीमेंट, लोहे से बनाया जाय तब उसमें उसकी मरम्मत में मिट्टी काम में लाई जा सकती है ? ठीक उसी प्रकार से इस मानव शरीर की रचना परमात्मा कहे जो भी नाम दे दे प्रकृति ने इसे अपने ही संसाधनों से निर्मित किया है। फिर उस परम सत्ता के द्वारा निर्मित मानव शरीर की मरम्मत भी हमें उसी में ढूंढ़ना होगा।
तनाव के बारे में आध्यात्मिक वैज्ञानिको की माने तो 98% तनाव और बीमारियों की जड हमारे विचार हैं। और यदि विचार की जड़ में जायें फिर 60000 से 150000 विचार एक सामान्य मनुष्य को लगभग 24 घंटे में उसके दिमांग में आते हैं । अब यह आंकड़ा बहुत पहले का है जब हमारे पास मोबाइल और टीवी सोशियल मीडिया और प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रोनिक वगेरे संसाधनो न के बराबर थे । और यह लगभग अमीरो के पास भी न के बराबर उपलब्ध थे। आधुनिक संसाधनो की कमी थी जिससे हमारी इच्छाओ में भी नही, अपितु यह सपनो में भी यह सब नही आते थे। आज आधुनिक संसाधनो ने विचारो को पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ा चुके हैं । जिससे पार पाना आज असंभव न सही मुश्किल जरूर है । परंतु आज भी यदि हम हमारे प्राचीन संत महात्माओ की माने तो पहले के विचारो को दूर करने की जो चावी थी उससे इसे भी दूर किया जा सकता है । फर्क सिर्फ इतना होगा कि पहले जो समय निर्धारित किये गये थे उससे अब ज्यादा समय लग रहा है। जैसे पहले 100 किलोमीटर जाने में समय लगता था अब 300 से 500 किलोमीटर जाना है फिर थोडा समय ज्यादा लगना स्वाभाविक है । परंतु आधुनिक वैज्ञानिको ने अब पहले से सिर्फ विचारो को ही नही बढ़ाया साथ ही साथ अब आधुनिक संसाधन भी उसे हमे बेहद कम समय में पहुंचाने में मदद करते हैं। जैसे पहले हिमालय पर जो ठंडक और माहोल मिल रहा था आज उसे आधुनिक संसाधनो ने आपके घर तक पहुंचा चुके हैं । अब घर में वही माहोल वही आवाज वहां के सभी संसाधन आधुनिक ढंग से निर्मित किया जा सकता है । अब हिमालय अथवा जंगलो में जाने की जरूरत नही है । अब हमें इन सभी संसाधनो का सकारात्मक उपयोग करना होगा ।
तनाव मुक्त, आनंदमय, बीमारियों से छुटकारा पाने की जो सबसे बडी चावी है वह है ध्यान । वैसे तो ध्यान की अब तक हजारो विधियां ईजाद की गयी हैं। जिसमें लगभग सभी विधियां कारगर हैं। ध्यान के किसी भी निरंतर प्रयोग से कुछ न कुछ सफलता प्राप्त अवश्य होती है। परंतु आज तथाकथित धर्म के अनुयायियों ने इसे व्यापार का रूप दे दिया है। और खासकर इसमें स्वयं के भीतर अपने अंदर जाने के बजाय एक तथाकथित धार्मिक परंपराओं को जोड़कर स्वयं का ध्यान करवाने लगे। और इसे धर्म विशेष से जोड़ दिया। पहला कदम ही गलत उठा दिया। और याद रहे इसी पहले कदम से भूल हमें सदियों से भटकने में मजबूर कर दिया है। और आज सदियां गुज़र गई एक वैज्ञानिक पद्धति को धर्म से जोड़ कर बर्बाद कर दिया। और यदि देखा जाय फिर उनकी भी भूल नहीं है ऐसी खोज एक दीवाना एक फकीर एक संत एक महात्मा ही कर सकता है। और उसी बादशाहत को जिसे भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, पैगम्बर मोहम्मद,जीसस, सूरदास, रैदास, कबीर, रहीम , मीरा वगैरह ने किया उसी को आज अलग अलग धर्म बना दिया। हालांकि इस परम सत्ता का मार्ग है उससे किसी भी धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। जैसे झुकने की कला , अब इसे भगवान सूर्य से जोड़ दिया । अब इस विराट संपत्ति का मार्ग किसी विशेष धर्म से जोड़ते ही वह एक विशेष धर्म का अपने आप हो गया। और संपूर्ण मानव जीवन को एक नई गति जिसमें मिल सकती थी उसको एक प्रकार से किसी एक सीमा से बंध गया। और यदि गहराई से देखा जाय तो धर्म को किसी एक अंश से जोड़ते ही उसका विध्वंस हो गया । और वह अब जब उसकी एक सीमा बना दी गई। विराट होते हुए अब सीमित कर दिया। और इसकी खोज करने वाले भी विराट थे परन्तु उनके तथाकथित अनुयाइयों ने उस विराट को व्यापार बना दिया। और इस कला के वैज्ञानिक युग को चंद तथाकथित धर्म के अनुयायियों की वजह से इस प्रकार से रूप मिल गया है कि जिसका स्वरूप विराट था उसे हमारे जीवन से ही अलग किया जा चुका है। हालांकि अब इसके ऊपर अब कुछ वर्षों से वैज्ञानिक प्रयोग होने लगे और अब समझ में आ रहा है कि इस ध्यान के विना हम अधूरे ही नहीं कुछ भी नहीं है। जितना बड़ा अमीर इंसान होते जा रहा है अब उसे ही दिखाई पड़ता है। कि वह बाहर अमीर जिस रूप में बनता गया उसी रुप में अंदर गरीब और बेसहारा हो चुका है। क्योंकि बाहर इतना बाहर हो जाता है कि उसका स्पर्श भी नहीं हो पाता। और हालत अब पहले से कई गुना अधिक खराब हो चुकी है। क्योंकि जैसे जैसे हम बाहर की सभी सुविधाओं को पाने में समर्थ होंगे उसी मात्रा में हमें पता भी चलने लगता है कि कितने दीन हीन हो चुके हैं। क्योंकि शरीर मन आत्मा और परमात्मा एक क्रम है। हम अब तक शरीर की जरूरत को पूरी नहीं कर पाते थे सदियां गुज़र गई। मन हमें दिखाई ही नहीं दिया। अब हमें मन दिखाई पड़ता है। शरीर की जरूरत पूरी हो फिर मन फिर आत्मा और परमात्मा की बात होती है। इसीलिए जितने भगवान बने सभी राजाओं के परिवार से आते। उसका सिर्फ ही कारण था कि उन्हीं को समझ में आया जिसकी प्राथमिक जरूरत यानी शरीर की पूरी हो चुकी । हम ज्यादातर अभी भी प्राथमिक जरूरत को पूरी नहीं कर पाते। और जिस तरह पूरी हुई अब उनको यदि अब इस विराट के मार्ग को न बताया गया अथवा यदि उन्हें न मिला फिर एक भयंकर बिक्षिप्तता का शिकार होना आवश्यक है। और अब इसकी शुरूआत हो चुकी है।और इसके अलावा अब कोई विकल्प नहीं है।
ध्यान एक बिशिष्ट वैज्ञानिक पद्धति है यह इतनी अनूठी है, इतनी अलग है कि कोई भी सूत्र इसमें फिट नहीं हो सकता है। मनुष्य एक यूनिक प्राणी है। सभी अलग अलग हैं। सभी को अलग अलग अनुभव होता है। इसलिए कोई भी विधि सभी के ऊपर लगाई नहीं जा सकती है। प्राथमिक विधियां अवश्य है । जैसे आप को ड्राइविंग सिखाया जा सकता है परन्तु यह नहीं बताया जा सकता कि रास्ते में किस प्रकार के वाहन और लोग मिलेंगे। रास्ता आगे कैसे किस प्रकार का मिलेगा। किन किन लोगो से रास्ता गुजरेगा। उसी प्रकार से जीवन में इस विराट विधि को उतना ही बताया जा सकता है। जैसे शरीर भाव और मन की शुद्धि करना इसकी प्राथमिक जरूरत है। ध्यान घट जाता है लग जाता है इसका अभी तक कोई गणित सूत्र फिक्स नहीं हो पाया। परंतु यदि उन सभी को एक साथ निरंतर प्रयोग में लाया जाय फिर यह संभव है कि एक दिन जरूर घटेगा। परंतु यह अवश्य है कि कब घटेगा कितने समय में होगा। होगा या नहीं होगा उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसकी शुरुआत में ही इस रास्ते पर चलने मात्र में ही जो आनंद मिलता है जो अनुभव मिलता है उसके सामने दुनिया की सभी संपत्ति भी अदना दिखाई अवश्य देती है। ध्यान के रास्ते ही इतने आनंदमय होते हैं जिसके लिए कोई शब्द नहीं है। उसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है। शब्दों से परे है।
आइये हम सब मिलकर इस अनंत यात्रा का शुभारंभ करें।

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